मुंबई 27 मई (वार्ता) हिन्दी सिनेमा जगत के युगपुरुष महबूब खान को एक ऐसी शख्सियत के तौर पर याद किया जाता है जिन्होंने दर्शकों को लगभग तीन दशक तक क्लासिक फिल्मों का तोहफा दिया। देश की पहली बोलती फिल्म आलम आरा के लिये महबूब खान का अभिनेता के रूप में चयन किया गया था लेकिन फिल्म निर्माण के समय आर्देशिर ईरानी ने महसूस किया कि फिल्म की सफलता के लिए नये कलाकार को मौका देने की बजाय किसी स्थापित अभिनेता को यह भूमिका देना सही रहेगा। बाद में उन्होंने महबूब खान की जगह मास्टर विट्ठल को इस फिल्म में काम करने का अवसर दिया। महबूब खान (मूल नाम रमजान खान)का जन्म 1906 में गुजरात के बिलमिरिया में हुआ था। वह युवावस्था में घर से भागकर मुंबई आ गये और एक स्टूडियों में काम करने लगे। उन्होंने अपने सिने कैरियर की शुरूआत 1927 में प्रदर्शित फिल्म ‘अलीबाबा एंड फोर्टी थीफस’ से अभिनेता के रूप में की। इस फिल्म में उन्होंने 40 चोरों में से एक चोर की भूमिका निभायी थी। इसके बाद महबूब खान सागर मूवीटोन से जुड़ गये और कई फिल्मों में सहायक अभिनेता के रूप में काम किया। वर्ष 1935 में उन्हें ‘जजमेंट आॅफ अल्लाह’ फिल्म के निर्देशन का मौका मिला। अरब और रोम के बीच युद्ध की पृष्ठभूमि पर आधारित यह फिल्म दर्शकों को काफी पसंद आई।
महबूब खान को 1936 में ‘मनमोहन’ और 1937 में ‘जागीरदार’फिल्म को निर्देशित करने का मौका मिला लेकिन ये दोनों फिल्में टिकट खिड़की पर कुछ खास कमाल नहीं दिखा सकीं। वर्ष 1937 में उनकी ‘एक ही रास्ता’प्रदर्शित हुयी। सामाजिक पृष्ठभूमि पर बनी यह फिल्म दर्शकों को काफी पसंद आई।इस फिल्म की सफलता के बाद वह निर्देशक के रूप में अपनी पहचान बनाने में कामयाब हो गये। वर्ष 1939 में द्वितीय विश्वयुद्ध के कारण फिल्म इंडस्ट्री को काफी आर्थिक नुकसान का सामना करना पड़ा। इस दौरान सागर मूवीटोन की आर्थिक स्थिति काफी कमजोर हो गयी और वह बंद हो गयी। इसके बाद महबूब खान अपने सहयोगियों के साथ नेशनल स्टूडियों चले गये।जहां उन्होंने औरत 1940. बहन 1941 और रोटी 1942 जैसी फिल्मों का निर्देशन किया। कुछ समय तक नेशनल स्टूडियों में काम करने के बाद महबूब खान को महसूस हुआ कि उनकी विचारधारा और कंपनी की विचारधारा में भिन्नता है। इसे देखते हुये उन्होंने नेशनल स्टूडियों को अलविदा कह दिया और महबूब खान प्रोडक्शन लिमिटेड की स्थापना की. जिसके बैनर तले उन्होंने नजमा . तकदीर 1943 और हूमायूं 1945 जैसी फिल्मों का निर्माण किया।
वर्ष 1946 मे प्रदर्शित फिल्म ‘नमोल घड़ी’ महबूब खान की सुपरहिट फिल्मों में शुमार की जाती है। इस फिल्म से जुड़ा रोचक तथ्य यह है कि महबूब खान फिल्म को संगीतमय बनाना चाहते थे।इसी उद्देश्य से उन्होंने नूरजहां,सुरैया और अभिनेता सुरेन्द्र का चयन किया जो अभिनय के साथ ही गीत गाने में भी सक्षम थे। फिल्म की सफलता से महबूब खान का निर्णय सही साबित हुआ।नौशाद के संगीत से सजे ‘आवाज दे कहां है’,आजा मेरी बर्बाद मोहब्बत के सहार,और जवां है मोहब्बत, जैसे गीत श्रोताओं के बीच आज भी लोकप्रिय है। वर्ष 1949 में प्रदर्शित फिल्म ‘अंदाज’महबूब खान की महत्वपूर्ण फिल्मों में शामिल है। प्रेम त्रिकोण पर बनी दिलीप कुमार,राज कपूर और नर्गिस अभिनीत यह फिल्म क्लासिक फिल्मों में शुमार की जाती है। इस फिल्म में दिलीप कुमार और राजकपूर ने पहली और आखिरी बार एक साथ काम किया था। वर्ष 1952 में प्रदर्शित फिल्म‘आन’महबूब खान की एक और महत्वपूर्ण फिल्म साबित हुयी। इस फिल्म की खास बात यह थी कि यह हिंदुस्तान में बनी पहली टेक्नीकलर फिल्म थी और इसे काफी खर्च के साथ वृहत पैमाने पर बनाया गया था। दिलीप कुमार,प्रेमनाथ और नादिरा की मुख्य भूमिका वाली इस फिल्म से जुड़ा एक रोचक तथ्य यह भी है कि भारत में बनी यह पहली फिल्म थी जो पूरे विश्व में एक साथ प्रदर्शित की गयी।
फिल्म ‘आन’की सफलता के बाद महबूब खान ने ‘अमर’फिल्म का निर्माण किया। बलात्कार जैसे संवेदनशील विषय बनी इस फिल्म में दिलीप कुमार,मधुबाला और निम्मी ने मुख्य निभाई। हालंकि फिल्म व्यावसायिक तौर पर सफल नहीं हुयी लेकिन महबूब खान इसे अपनी एक महत्वपूर्ण फिल्म मानते थे। वर्ष 1957 में प्रदर्शित फिल्म ‘मदर इंडिया’महबूब खान की सर्वाधिक सफल फिल्मों में शुमार की जाती है।महबूब खान ने मदर इंडिया से पहले भी इसी कहानी पर 1939 में ‘औरत’ फिल्म का निर्माण किया था और वह इस फिल्म का नाम भी औरत ही रखना चाहते थे लेकिन नरगिस के कहने पर उन्होंने इसका .मदर इंडिया. जैसा विशुद्ध अंग्रेजी नाम रखा। फिल्म की सफलता से उनका यह सुझाव सही साबित हुआ। वर्ष 1962 में प्रदर्शित फिल्म ‘सन ऑफ इंडिया’महबूब खान के सिने करियर की अंतिम फिल्म साबित हुयी। बड़े बजट से बनी यह फिल्म टिकट खिड़की पर बुरी तरह नकार दी गयी। हांलाकि नौशाद के संगीतबद्ध फिल्म के गीत ‘नन्हा मुन्ना राही हूं’और ‘तुझे दिल ढूंढ रहा है’ आज भी लोगों के दिल में है। अपने जीवन के आखिरी दौर में महबूब खान 16वीं शताब्दी की कवयित्री हब्बा खातून की जिंदगी पर एक फिल्म बनाना चाहते थे लेकिन उनका यह ख्वाब अधूरा ही रह गया। अपनी फिल्मों से दर्शको के बीच खास पहचान बनाने वाले यह महान फिल्मकार 28 मई 1964 को इस दुनिया से अलविदा कह दिया।