लोकरुचिPosted at: Jun 26 2016 5:07PM दम तोड़ती जा रही सहरी जगाने की परम्परा
लखनऊ 26 जून (वार्ता) “ उठो सोने वाले सहरी का वक्त है, उठो अल्लाह के लिये अपनी मगफिरत (गुनाहों की माफी ) के लिये ” जैसे पुर तरन्नुम गीत गाते और शेरो-शायरी करते पुरानी तहजीब के रहनुमा माने जाने वाले फेरीवालों की सदाएं वक्त के थपेड़ों और समाजी दस्तूर में बदलाव के साथ अब मद्धिम पड़ती जा रही हैं। माह-ए-रमजान में सहरी में जगाने की स्वस्थ परम्परा दिलों और हाथों की तंगी की वजह से अब दम तोड़ती जा रही है। फेरी आपसी सम्बन्धों को मजबूत करने वाला एक सामाजिक बंधन था लेकिन मआशरे में बिखराव के साथ इसकी डोरियां भी अब धीरे-धीरे खुलती जा रही हैं। उत्तर प्रदेश में आजमगढ़ स्थित प्रमुख इस्लामी शोध संस्थान 'दारुल मुसन्निफीन' के उप प्रमुख मौलाना मुहम्मद उमेर ने 'यूनीवार्ता' को बताया कि सहरी के लिये जगाना फेरीवालों की समाजी पहचान हुआ करती थी। फेरीवाले रमजान में देहातों और शहरों में रात को लोगों को सहरी की खातिर जगाने के लिये शेरो शायरी करते हुए निकलते हैं। ज्यादातर फेरीवाले फकीर बिरादरी के होते हैं।