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गांधी ने चरखे को बनाया आर्थिक स्वावलम्बन का प्रतीक

गांधी ने चरखे को बनाया आर्थिक स्वावलम्बन का प्रतीक

(प्रसून लतांत से)

नयी दिल्ली, 27 मार्च (वार्ता) एक सौ साल पहले राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की इच्छा पर खोज निकाला गया चरखा आजादी की लड़ाई में आर्थिक स्वावलम्बन का प्रतीक बना लेकिन आज वह देश में सिर्फ प्रदर्शन की वस्तु बन कर रह गया है जबकि विदेशियों के लिये वह चिंतन और ध्यान का आधार बन रहा है।

देश में चरखे का इतिहास काफी पुराना है लेकिन इसमें उल्लेखनीय सुधार गांधीजी के जीवनकाल में हुआ। गांधी जी को सबसे पहले 1908 में चरखे की बात सूझी, तब वह इंग्लैंड में थे। वह चाहते थे कि कहीं से चरखा लाएं। उन्होंने 1916 में स्वदेश लौटने के बाद अहमदाबाद में सत्याग्रह आश्रम स्थापित किया। दो साल बाद 1918 में एक विधवा बहन गंगा ने खोजकर गांधी जी को चरखा मुहैया कराया। गुजरात में अच्छी तरह भटकने के बाद बीजापुर गांव में गंगा बहन को चरखा मिला था।

आश्रम में चरखे का प्रवेश हुआ। मगन लाल गांधी की शोधक शक्ति ने चरखे में कई बदलाव किए तथा चरखे और तकुए आश्रम में ही बनने लगे। मिलों के प्रतिनिधियों ने गांधी जी को बहुत समझाने की कोशिश की कि वह कपड़े के लिए अधिक से अधिक मिल खोलने की बात करें। गांधी जी ने ऐसा करने से इनकार कर दिया और चरखा आंदोलन को आगे बढ़ाने में जुट गए।

पूरी दुनिया में अहिंसा के लिए विख्यात हुए महात्मा गांधी चरखे को अहिंसा की निशानी मानते थे। वह हरेक सभा में कहा करते थे कि चरखा वह यंत्र है, जिसका चक्र घुमाते ही सब एक जैसे हो जाते हैं। काम ऐसा होना चाहिए जिसे अपढ़ और पढ़े लिखे, भले और बुरे, बालक और बूढ़े, स्त्री और पुरुष, लड़के और लड़कियां, कमजोर और ताकतवर चाहे वे किसी जाति और धर्म के हों, कर सकें। चरखा ही एक ऐसी वस्तु है जिसमें यह सब गुण हैं। इसलिए जो कोई स्त्री या पुरुष रोज आधा घंटा चरखा चलाकर सूत काटता है, वह जन समाज की अच्छी से अच्छी सेवा करता है।

अपनी हत्या के मात्र डेढ़ महीना पहले देश में व्याप्त हिंसा के माहौल के बीच उन्होंने प्रार्थना सभा में कहा था कि चरखे में बड़ी ताकत है। हम लोंगों ने चरखा चलाया पर उसे अपनाया नहीं। अगर हमें अहिंसा की शक्ति बढ़ानी है तो फिर से चरखे को अपनाना होगा और उसका पूरा अर्थ समझना होगा। तभी हम तिरंगे झंडे का गीत गा सकेंगे। जब तिरंगा झंडा बना था, तब उसका अर्थ यही था कि हिंदुस्तान की सब जातियां मिलजुल कर काम करें और चरखे के द्वारा अहिंसक शक्ति‍ का संगठन करें। आज भी चरखे में अपार शक्ति है। अगर सब भाई बहन दोबारा चरखे की ताकत को समझकर अपनाएं तो बहुत से काम बन जाएंगे।

चरखे पर जोर देने के पीछे गांधी जी की यह सोच थी कि इससे देश की गरीब स्त्रियों को काम दिया जा सकता है। चरखे में बदलाव के लिये लिए 1923 में गांधी जी ने पांच हजार का पुरस्कार भी घोषित किया, लेकिन कोई विकसित नमूना प्राप्त नहीं हुआ। चरखे का आंदोलन बढ़ने लगा तो 1925 में चरखा संघ की स्थापना हुई और इसकी ओर से 1929 में गांधी जी की शर्तों के अनुरुप चरखा बनाने वाले को एक लाख रुपये का पुरस्कार घोषित किया गया था। इसके बाद भी कोई अंतिम नमूना नहीं मिला।

चरखे में आज भी बदलाव जारी है लेकिन अब वह इस्तेमाल के बजाय प्रदर्शन की वस्तु बन गया है। दिल्ली के कनाॅट

प्लेस में 25 फुट लंबा, 13 फुट ऊंचा और आठ फुट चौड़ा चरखा प्रदर्शन के लिए स्थापित किया गया है। इंदिरा गांधी एयरपोर्ट पर 30 फुट लंबा, 17 फुट ऊंचा और नौ फुट चौड़ा चरखा स्थापित किया गया है, जिसे अहमदाबाद के 42 बढ़इयों ने 55 दिनों में तैयार किया। दिल्ली के कनाट प्लेस में गंगा बहन के नाम पर चरखा संग्रहालय भी बनाया गया है। संग्रहालय में अलग अलग तरीके के सौ चरखे रखे गए हैं इनमें से कई डेढ़ सौ साल से भी पुराने हैं।

हाल में अमेरिका से चरखे की मांग आई तो वहां लगभग 80 तरीके के चरखों का निर्यात किया गया। वहां अब लोग चरखा चलाकर ध्यान करते हैं।

प्रसिद्ध गांधीवादी चिंतक डॉ. रामजी सिंह कहते हैं कि चक्की, चूल्हा और चरखा हमारी संस्कृति के अंग हैं। गांधी जी ने चरखे को नया जीवन दिया तथा स्वतंत्रता और स्वावलम्बन से जोड़ा। चरखे के लिए गांधी जी के नेतृत्व में स्वाधीनता

सेनानियों ने बहुत कुर्बानियां दीं। ब्रिटिश हुकूमत चरखे तोड़ती थी, खादी भंडारों पर हमले करती थी लेकिन स्वाधीनता सेनानी पीछे नहीं हटे। उनके प्रयासों से घर-घर चरखे चलने लगे थे। चरखा केवल चरखा नहीं था वह सुदर्शन चक्र बन

गया था और देश को आजाद कराने में सहायक बना।

जय रीता आजाद

वार्ता

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