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विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी


बढ़ रहे हैं ब्रेन ट्यूमर के मामले, बहरे हो रहे हैं ‘हम’: आईआईटी प्रोफेसर

बढ़ रहे हैं ब्रेन ट्यूमर के मामले, बहरे हो रहे हैं ‘हम’: आईआईटी प्रोफेसर

( डॉ़ आशा मिश्रा उपाध्याय )

नयी दिल्ली, 30 सितम्बर (वार्ता) मोबाइल फोन ने जहां हमारी जिन्दगी को आसान बनाया है वहीं इसके प्रयोग संबंधी उचित जानकारियों के अभाव और मोबाइल टावरों से निकालने वाले खतरनाक इलेक्ट्रोमैग्नेटिक रेडिएशन का स्तर अंतरराष्ट्रीय मानक से कई गुणा अधिक होने के कारण हर वर्ष सैकड़ों जिन्दगियां ‘तकनीकी तरक्की’ की भेंट चढ़ रही हैं।

ताजा अध्ययन में दावा किया गया है कि स्मार्ट फोन को कान में चिपकाकर आधा घंटा से अधिक समय तक लगाकर बात करने से 10 साल के बाद ब्रेन ट्यूमर होने की आशंका दोगुनी हो जाती है।

मोबाइल फोन और इसके टावरों से निकलने वाले खतरनाक इलेक्ट्रोमैग्नेटिक रेडिएशन के खिलाफ ‘युद्ध’ का शंखनाद करने वाले आईआईटी मंबई के प्रोफेसर गिरीश कुमार ने शनिवार को यूनीवार्ता से कहा , “मैंने हाल ही में देश के कई नामी -गिरामी ईएनटी विशेषज्ञों से बात की है और इसकी रिपोर्ट प्रकाशित की है। सभी विशेषज्ञों ने कहा है कि बहरापन और ब्रेन ट्यूमर के मरीजों की संख्या बढ़ रही है। मेरे ताजा सर्वेक्षण में ज्यादातर लोगों ने स्वीकार किया कि देर तक मोबाइल पर बात करने से उनके कान गरम हो जाते हैं। रिपोर्ट्स के मुताबिक 20 से 30 मिनट तक मोबाइल पर बात करने से माइक्रोवेव रेडिएशन हमारे शरीर में प्रवेश करता है और सबसे पहले ईयर लोब का खून गरम हाे जाता है। इसके बाद रक्त के तापमान में एक डिग्री सेल्सियस की वृद्धि हाेती है जिससे हमारे शरीर का तापमान बढ़कर 100़ 2 डिग्री फाॅरेनहाइट हो जाता है। इसके अलावा आधा घंटे से अधिक समय तक लगातार बात करने से सिर दर्द की समस्या शुरु होती है और इसके बाद ब्रेन ट्यूमर के अंतिम चरण के लक्षण सामने आते हैं। ”

कनाडा के मैनिटोबा विश्वविद्यालय के पूर्व रिसर्च एसोसिएट ने कहा ,“ हर हाथ में कमोवेश हर समय दिखने वाले स्मार्ट फोन ने हमें मानो वशीभूत कर लिया है और हम ‘घातक हथियार’से स्वयं काे गंभीर नुकसान पहुंचा रहे हैं। साथ ही, मोबाइल टावरों और वाईफाई के कारण हम हर पल रेडिएशन के साये में जी रहे हैं जिससे ब्रेन ट्यूमर समेत कई प्रकार की घातक बीमारियां प्रतिदिन बढ़ रही हैं। वर्ष 2003 के बाद देश में कैंसर के बढ़ते मामलों को देखा जा सकता है।”

उन्होंने कहा कि अंतरराष्ट्रीय वैज्ञानिकों की एक टीम ने साल 2000 में ‘इंटरफोन स्टडी’ की थी जिसमें पांच हजार 117 ब्रेन ट्यूमर मामलों का अध्ययन किया गया था। इसकी रिपोर्ट वर्ष 2012 में आयी थी जिसमें कहा गया था कि तय सीमा यानी प्रतिदिन चार मिनट मोबाइल पर बात करने से कोई समस्या नहीं होती है लेकिन आधा घंटा से अघिक समय तक बात करने से 10 साल के बाद कैंसर की आशंका दोगुनी हो जाती है।

इसके आधार पर विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यू एच ओ) ने रेडिएशन को पॉसिबल कार्सेजेनिक (कैंसरकारी) 2 बी घोषित किया । स्पेन, फ्रांस समेत कई यूरोपीय देशों ने 12 साल से कम उम्र के बच्चों के लिए मोबाइल फोन प्रतिबंधित किया है जबकि हमारे यहां लोग एक साल के बच्चे के हाथ में भी मोबाइल थमा देते हैं। अमेरिका समेत कई देशों की वैज्ञानिकों की टीम गहन अध्ययन और सर्वेक्षण के बाद इस नतीजे पर पहुंची है कि रेडिएशन का सीधा प्रभाव बच्चों के काेमल दिमाग पर पड़ता है जो उनके मानसिक विकास और स्वास्थ्य के लिए बेहद खतरनाक है। गर्भ में पल रहे बच्चों के लिए यह और भी घातक है।

अंतरराष्ट्रीय पत्रिकाओं के लिए 270 से अधिक रिपोर्ट्स लिखने वाले प्रोफेसर कुमार ने कहा कि मोबाइल फोन देर तक पैंट की जेब में रखने से पुरुष नपुंसकता के शिकार हाेते हैं और इसका खतरा महिलाओं को भी है। ऐसे में बच्चों के लिए दम्पति इन विट्रो फर्टिलाइज़ेशन (आइवीएफ) का सहारा लेते हैं। दरअसल मोबाइल के टावर से हर वक्त रेडियो तरंगें निकलती रहती हैं जिनका असर सीधे मनुष्य के दिल और दिमाग पर पड़ता है। सबसे पहले याददाश्त घटती है, उसके बाद लोग ट्यूमर, नपुंसकता ,अल्जाइमर, उच्च रक्त ताप , एलर्जी ,अवसाद जैसी बीमारियों के शिकार होते हैं।

सेलफोन ने विदेशों में 1985 में और भारत में 1995 में दस्तक दी थी। हमारे देश में मोबाइल के लिए कह सकते हैं,-इट केम ,इट सा, इट काँकर्ड ’। साल 2003 में इनकमिंग काॅल्स फ्री होने और इसके बाद कॉल्स रेट एक रुपया प्रति मिनट होने के बाद मोबाइल फोन के उपयोग में बेतहाशा वृद्धि हो रही है। फ्री कनेक्शन और आउट गोइंग कॉल्स के दर में भारी कमी और मामूली कीमत में एक माह का नेट डेटा मिलने के बाद मोबाइल और अन्य उपकरणों के उपयोग की तो कोई सीमा ही नहीं है।

उन्होंने कहा,“ हम ‘अदृश्य स्पेक्ट्रम’ के जाल में बुरी तरह फंस गये। डेटा सस्ता होने के कारण हम पहले से खतरनाक स्थिति में थे और अब आये दिन कई क्षेत्रों को वाईफाई से लैस किया जा रहा है जिससे स्थिति और गंभीर हो गयी है। आपात स्थिति में उपयोग के लिए इजाद किये गये मोबाइल फोन पर लोग कई-कई घंटें तक बात करते हैं और नन्हें बच्चों को मोबाइल फोन ,लैपटॉप और टैबलेट्स देते हैं। घंटों खेलने के लिए। डेटा के इस तरह के उपयोग ,सेल टावरों की संख्या में लगातार वृद्धि और उन्हें पावरफुल बनाने की तकनीक के उपयोग के बाद कल्पना करना मुश्किल है कि 10 साल के बाद हमारे बच्चों और नौजवानों की हालत क्या होगी। धीरे-धीरे हम उस भविष्य की तरफ बढ़ रहे हैं जब हमारे बच्चों के लिए माता-पिता बनना आसान नहीं होगा और वे दादा-दादी और नाना-नानी बनने के लिए तरस जायेंगे। ”

मोबाइल फोन के प्रयोग में कुछ सावधनियां बरत कर रेडिएशन के खतरे से कुछ हद तक बचा जा सकता है। हमें स्पेसिफ़िक एब्ज़ोर्प्शन रेट (सार) वैल्यू 1़ 6 वाट प्रति किलोग्राम से कम वाले हैंडसेट का प्रयोग करना चाहिए। सार वैल्यू की जानकारी अपने मोबाइल फोन से स्टार हैश 07 हैश दबा कर प्राप्त की जा सकती है। सार वैल्यू जितना कम होगा रेडिएशन का खतरा भी उतना ही कम हागा। मोबाइल फोन के गाइडलाइंस में हैंडसेट को शरीर से कम से कम एक इंच की दूरी पर रखकर इस्तेमाल करने को कहा गया है। हैंड फ्री और मोबाइल को स्पीकर मोड पर रखकर शरीर में रेडिएशन के सीधा प्रभाव से बचा जा सकता है। लेकिन इस दौरान मोबाइल को हाथ में नहीं पकड़ने पर ही इसका फायदा होगा। वाईफाई को ऐसे स्थान पर रखा जाना चाहिए जिस क्षेत्र का घर में कम उपयोग हाेता हो। प्रयोग में नहीं लेने पर वाईफाई को बंद कर देना बेहतर होगा। सोते समय मोबाइल को कम से कम एक हाथ की दूरी पर रखना समझदारी होगी। सफर के दौरान मोबाइल डेटा बंद कर देना चाहिए। इससे भी बेहतर इसे फ्लाइट मोड पर करना होगा। कार, ट्रेन और लिफ्ट और बैट्री कम रहने पर इसका प्रयोग नहीं करना चाहिए। जिस क्षेत्र में सिग्नल नहीं मिलता है वहां मोबाइल के प्रयोग से बचना चाहिए क्योंकि इस स्थिति में मोबाइल फोन के प्रयोग से ज्यादा रेडिएशन शरीर में प्रवेश करता है। मोबाइल का हम जब प्रयोग नहीं करते हैं तभी यह हर छह सेकेंड में एक पल्स टावर की तरफ भेजता है और उसे अपनी उपस्थिति का भान करवाता है। मोबाइल पर संदेश टाइप करने पर नहीं, उसे सेंड करने पर रेडिएशन हमारे शरीर में प्रवेश करता है। बेहतर होगा कि मोबाइल को टेबल पर रखकर सेंड बटन दबाया जाये। सबसे महत्वपूर्ण बात, जब फोन में घंटी बजती है तब उसमें सर्वाधिक रेडिएशन होता है क्योंकि कई टावरों और स्विच बोर्ड से गुजरने वाली तरंगों में मैग्नेटिक रेडिएशन अधिक हाेता है। फोन उठाकर सीधे कान पर लगाने की बजाय बटन दबाकर कुछ सेकेंड ठहरें।” प्रोफेसर ने हल्के -फुल्के अंदाज में कहा,“ थोड़ी प्रतीक्षा के बाद बोलिए ‘हेलो रेडिएशन’।”

उन्होंने कहा कि सोते समय सेलफोन का प्रयोग करना आंखों के लिए बेहद खतरनाक है। इस समय रेडिएशन सीधे आंखों में प्रवेश करता है जिससे आंखों की रोशनी को नुकसान पहुंच सकता है, इससे बचना चाहिए।

प्रोफेसर कुमार ने कहा कि मोबाइल फोन के बारे में जागरूकता फैलने पर हम इसकी समस्या पर काफी हद तक नियंत्रण पा सकते हैं लेकिन टावरों की स्थिति बेहद खतरनाक हैं। टावर रेडिएशन की सुरक्षित सीमा को लेकर डब्ल्यू एच ओ ने जिस इंटरनेशनल कमीशन ऑन नॉन आयोनाइजिंग रेडिएशन प्रोटेक्शन मानक को स्वीकृत किया है उसे हमारे देश ने अपनी सुविधा के हिसाब से अपनाया है। छह मिनट प्रति दिन के रेडिएशन के दायरे को हमने एक घंटे के लिए मान्य वाले मानक को अपना है। एक सितम्बर 2012 को रेडिएशन 450 मिली वाट प्रति स्क्वयार मीटर किया गया जो एक घंटे के लिए मान्य हुआ। अगर रेडिएशन का दायरा एक मिली वाट प्रति स्क्वायर मीटर भी है तो पांच साल के अंदर समस्या शुरू हो सकती है। एंटीना के मुख्य बीम से ज्यादा रेडिएशन होता है और इसके कारण 100 से 300 मीटर के अंदर रहने वाले लोगों काे समस्या हो सकती है लेकिन एक टावर पर जितने एंटीना लगे होंगे समस्या उतनी अधिक होगी।

प्रोफेसर कुमार ने कहा ,“मैंने 2010 से अबतक 30 से अधिक बार दिल्ली का चक्कर लगाया और डिपार्टमेंंट आॅफ टेलीकॉम्युनिकेशंस (डीओटी) समेत कई विभागों को रिपोर्ट सौंपी। इसके बाद 2012 में रेडिएशन के दायरे को घटा कर वन टेंथ कर दिया गया लेकिन यह स्तर भी काफी घातक है। साल 2014 के बाद से डीओटी ने मुझे मिलने का काेई समय नहीं दिया। मैं धरना तो दे नहीं सकता। उन्हें मालूम है कि मैं रेडिएशन पर काम करता हूं इसलिए समय नहीं दिया जाता है।” प्रोफेसर ने कहा अमेरिका आदि देशों में मोबाइल टावर के 50 मीटर के दायरे में कोई रिहायशी इमारत नहीं होती है।

अंतरराष्ट्रीय वैज्ञानिकों की मांग है कि 0.1 मिलीवाट प्रति स्क्वायर मीटर से जीवन पर्यंत सुरक्षित रहा जा सकता है। हमारी मांग होगी कि इसे तत्काल 450 से दस मिलीवाट प्रति स्क्वायर मीटर किया जाये। अमेरिका के शहरी क्षेत्रों में एक टावर से केवल एक वाट क्षमता के एंटीना की अनुमति है जबकि भारत में एक टावर से 20वाट प्रति एंटीना की क्षमता है। हमने सरकार को रिपोर्ट और प्रेजेंटेशन भी भेजा है जिसमें समस्या का समाधान सुझाया गया है। मसलन, देश में पांच से छह लाख टावर हैं जिनकी क्षमता घटाकर एक वाट करनी होगी और एक-एक वाट के करीब छह लाख नये एंटीना लगाने होंगे। एक एंटीना पर करीब 20 लाख रुपये की लागत आयेगी लेकिन नागरिकों के स्वास्थ्य के मद्देनजर इसका क्रियान्वयन प्राथमिकता के आधार पर किया जाना पेक्षित है।

प्रोफसर कुमार ने कहा,“उच्चतम न्यायालय’ को रेडिएशन के खतरे का अच्छी तरह एहसास है तभी तो इस संबंध में सुप्रसिद्ध सिने कलाकार जूही चावला और अन्य की याचिकाओं की सुनवाई नवंबर में की जा रही है। मोबाइल फोन न केवल स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है बल्कि इससे पारिवारिक संबंधों और सामाजिक ताने -बाने के लिए भी गंभीर खतरा उत्पन्न हो गया है। आज अगर किसी भी स्थान पर किसी का हाथ ‘मोबाइल मुक्त’ मिल जाता है तो मैं उसे मन ही मन नमन कर लेता हूं।”

उन्होंने कहा,“कई मंचों से बार-बार सुनने को मिलता है कि सेल फोन और इसके टावर के रेडिएशन से कोई खतरा नहीं लेकिन गायब हाेती गौरैया और विलुप्त होती तितलियां एवं मधुमक्खियां रेडिएशन के खतरे की साक्षात उदाहरण हैं। रेडिएशन का प्रभाव पेड़-पौधों पर भी पड़ रहा है। सर्वेक्षण के दौरान मुझे गुरुग्राम के एक फार्म हाउस के मालिक ने बताया कि सेल टावर के सामने वाले जिस पेड़ पर सौ नींबू लगते थे अब उस पर मात्र दो नींबू लगते हैं। ”

उन्होंने कहा ,“ हम आज मोबाइल फोन, माइक्रोवेव अवन, कम्प्यूटर, लैपटॉप और वाईफाई के साये में जी रहे हैं लेकिन आज की पीढ़ी को रेडिएशन से ज्यादा खतरा है क्योंकि वह पूरी तरह ‘आॅन लाइन’ हो गयी है।”

आशा, यामिनी

वार्ता

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