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मुर्हरम पर मजहबी सदभाव का प्रतीक है इटावा की “लुट्टस” परम्परा

मुर्हरम पर मजहबी सदभाव का प्रतीक है इटावा की “लुट्टस” परम्परा

इटावा, 19 सितम्बर (वार्ता) यमुना नदी के किनारे बसा उत्तर प्रदेश का इटावा शहर यूं तो सांप्रदायिक सद्भाव की मिसाल पेश करता ही है लेकिन मुहर्रम के दिन निभायी जाने वाली “ लुट्टस परम्परा” इसमें चार चांद लगा देती है।

इस परम्परा के कारण गम के प्रदर्शन के प्रतीक मुहर्रम के दिन लोग खुशी को इस तरह से जाहिर करते हैं मानो जश्न का कोई पर्व हो। यूं तो यह परम्परा मुहर्रम के दिन हिंदुओं द्वारा शुरू की गयी है लेकिन इसमें मुस्लिम लोग भी खासी तादात में शरीक होते हैं। इसी कारण यह परम्परा साम्प्रदायिक सौहार्द्र की एक बड़ी मिसाल है। इस परम्परा के निर्वाह के चक्कर में कई लोगों को चोट लगती रहती है लेकिन कोई भी आज तक पुलिस के पास शिकायत करने के लिए नहीं पहुंचा।

लुट्टस परम्परा की शुरूआत इटावा के झम्मनलाल की कलार मुहल्ले में रहने वाले एक हिंदू गुप्ता परिवार से हुई थी। काफी मन्नत के बाद मोहर्रम के दिनों में बेटे पैदा होने की खुशी में परिजनों ने बर्तन और पैसे लुटाये साथ ही बड़ी मात्रा में पकवान बटवायें और इस परम्परा को लुट्टस नाम दिया गया। परम्परा के तहत गुप्ता परिवार के लोग ही लुट्टस करते हैं लेकिन इस दौरान लुटाये जाने वाले सामान को हासिल करने वालों में मुसलमान बहुतायत में होते हैं।

मन्नत के बाद जिस बेटे की पैदाइश हुई उसका नाम रखा गया था फकीरचंद्र। फकीरचंद्र का परिवार इटावा में करीब 300 लोगों के बड़े परिवार में बदल कर एक मुहल्ले का स्वरूप ले चुका है।


         गुप्ता परिवार की  अलका गुप्ता का कहना है कि हमारे सुसर के पिता ने बेटे की मन्नत मांगी थी मुहर्रम के दिनो मे एक साथ दो बेटे पैदा होने की दोहरी खुशी मिलने पर लुट्टस शुरू की गई। मुहर्रम के दिनो मे पूरी तरह से गम का माहौल रहता है कोई भी नया काम परिवार मे नही किया जाता है।

       उन्होंने बताया कि परिवार के उस समय के बुर्जगों ने तय किया कि बेटे की मन्न्नत पूरी होने के एवज में मुहर्रम के दौरान बर्तन और खाने पीने का सामान बंटवाया जाएगा, तब से यह सिलसिला बदस्तूर जारी है। अगर वो मन्नत पूरी नही होती आज हमारे परिवार का वजूद नही होता। यह लुट्टस परम्परा देश की अनोखी परम्परा के तौर पर तब्दील हो चुकी है क्योंकि मुहर्रम के दौरान देश में ना तो ऐसा होता है और ना ही ऐसा अभी तक देखा गया है।

       आज के परिवेश में परम्परा के नाम पर ये परिवार करीब एक करोड़ से अधिक का सामान लुट्टस के तौर पर बंटवाते हैं। आजादी से पहले अंग्रेजों के कुछ चुनींदा अफसर भी इस लुट्टस परम्परा के मुरीद हुआ करते थे, जो मुहर्रम के दिनों में लुट्टस का आनन्द लेने के लिए आते रहे हैं। इस बात के प्रमाण इटावा के गजेटियर में भी लिपिबद्ध किए गए हैं।


       इटावा में लुट्टस परम्परा की शुरुआत करने वाले परिवार के सदस्य राकेश गुप्ता बताते हैं कि खानदान में कोई नहीं था, सिर्फ पांच बेटियां ही थीं। उस समय के रूढ़वादी दौर में बेटा न होना बड़ी ही कचोटने वाली बात मानी जाती थी।  तमाम मन्नतों के बाद बेटे का जन्म हुआ तो पूरा परिवार खुशी के मारे पूरे शहर भर में झूमता फिरा।

       उन्होंने कहा कि उनके परिवार ने मन्नत पूरी होने के एवज में जिस लुट्टस परम्परा की शुरूआत की है उसे हर हाल में न केवल जारी रखेंगे बल्कि परिवार के नए सदस्यों को भी इस बात के लिए प्रेरित करते रहेंगे कि मन्नत ने खानदान को बनाया है इसलिए लुट्टस रूपी मन्नत परम्परा को हमेशा बरकरार रखें। लुट्टस परम्परा शुरू करने वाले परिवार के रिश्तेदार दूर दराज से लुट्टस के दौरान खासी तादात में इस दौरान जमा हो जाते हैं।

       कौमी तहफुज्ज कमेटी के सयोजक खादिम अब्बास का कहना है कि मुहर्रम के दौरान होने वाली लुटटस पंरपरा की बदौलत का इटावा का नाम अनोखी पंरपरा मे दर्ज है। इसकी खासियत यह है कि इस पंरपरा की शुरूआत हिंदु भाई ने की और आज इसमे हिस्सेदारी मुस्लिम तबके के लोग खासी तादात मे करते है। सबसे बडी  बात यह है कि कई हजार लोग भारी संघर्ष के बाद सड़कों पर एक दूसरे के ऊपर कूद कर  छतों से फेके जाने वाले बर्तनो और अन्य सामान को लूटते हैं लेकिन कोई किसी से फसाद नही करता है क्योंकि सब यह मानते है कि छतों से फेंके जाना वाला सामान सिर्फ सामान ना होकर बल्कि तब्बरूख यानि प्रसाद की माफिक है।

       मुहर्रम के दौरान वैसे तो सुरक्षा के खासे इंतजाम किये जाते है लेकिन यहां पर होने वाली लुट्टस के मद्देनजर व्यापक पुलिस बल लगाया जाता है क्योंकि लुट्टस के दौरान लोगो का भारी जमाबडा लगता है।

सं सोनिया

चौरसिया

वार्ता

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