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मशाल की रोशनी में होती है वाराणसी की विश्वप्रसिद्ध पौराणिक रामलीला

मशाल की रोशनी में होती है वाराणसी की विश्वप्रसिद्ध पौराणिक रामलीला

वाराणसी, 24 सितंबर (वार्ता) उत्तर प्रदेश की प्रचीन धार्मिक नगरी एवं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के संसदीय क्षेत्र वाराणसी के गंगा किनारे स्थित रामनगर की सैकड़ों वर्ष पुरानी विश्वप्रसिद्ध रामलीला आधुनिकता की चकाचौंध से दूर मशाल की रोशनी की शुरु हुई।

सवा दो सौ वर्षों से एक ही अंदाज में हर साल आयोजित होने वाली रामलीला भारत की धार्मिक एवं सांस्कृतिक धरोहर को जिंदा रखने का सशक्त माध्यम बनी हुई है। 21वीं सदी की ध्वनि विस्तारक यंत्रों एवं रात में दिन जैसा उजाला करने वाली प्रकाश व्यवस्था की दुनियां के बीच साधारण पेट्रोमैक्स एवं मशाल की रोशनी में कलाकार अपनी खुद की आवाज के दम पर साधारण से मंचों पर रामलीला का मंचन करते हैं। ‘रावण जन्म’ के मंचन के साथ रविवार शुरु हुआ यह धार्मिक आयोजन करीब एक महीने तक चलेगा।

मान्यता है कि यह रामलीला 235 पुरानी है। तत्कालीन काशी नरेश उदित नारायण सिंह ने वर्ष 1783 में रामलीला मंचन की शुरुआत की थी और तब से उसी अंदाज में आयोजन किया जाता है। आधुनिक चकाचौंध से इतर भारत की प्राचीन धार्मिक परंपराओं को निभाने के साथ ही पर्यावरण की रक्षा का संदेश देने वाला यह एक अनूठा आयोजन हैं। आसपास के क्षेत्रों के अलावा हजारों देशी-विदेशी मेहमान धार्मिक आस्था के साथ रामलीला देखने के लिए हर साल यहां आते हैं।

वारणसी में गंगा किनारे स्थित रामनगर के चार किलोमीटर से अधिक क्षेत्र में फैले एक दर्जन कच्चे एवं पक्के मंचों के माध्यम से अयोध्या, जनकपुर, चित्रकूट, पंचवटी, लंका और रामबाग दर्शाये गए हैं। खुले आसमान में होने वाली इस रामलीला में 30 से अधिक पात्रों की भूमिका में लगभग 15 बच्चे शामिल हैं। लड़कियां रामलीला मंचन का हिस्सा नहीं बनतीं तथा उनकी भूमिका लड़के निभाते हैं। मंचन से करीब एक महीने पहले इसकी तैयारियां शुरू कर दी जाती है। कई कलाकार दशकों से इस धार्मिक आयोजन में अहम किरदार की भूमिका निभाते आ रहे हैं। “काशी राज परिवार” की परंपरा का निर्वहन करते हुए अनंत नारायण सिंह रोजाना हाथी पर सवार होकर मंचन स्थल पर आते हैं। उसके बाद ही रामलीला शुरू होती है। श्री सिंह खुद और उनके परिवार के अन्य सदस्य आम दर्शकों की तरह रामलीला देखते हैं।

मंचन शुरू होते ही यहां का माहौल बेहद भक्तिमय हो जाता है। हजारों की संख्या में दर्शक एक हाथ में बैठने के लिए पीढ़ा और दूसरे में रामचरितमानस की किताब लेकर यहां पहुंचते हैं। वे पीढ़ा पर बैठकर रामलीला के पात्रों के सुर में सुर मिलाकर अवधी भाषा में रामचरितमानस की चौपाइयां भक्ति भाव के साथ पढ़ते हैं। मंचन के दौरान कलाकारों के अलावा कहीं से कोई कोई शोर-शराबा नहीं होता। दर्शक खुद ही इस बात का खासा ध्यान रखते हैं कि उनकी वजह से किसी को कोई परेशानी न हो।

करीब दस वर्षों से रामलीला मंचन देखते आ रहे रामनगर के डुमरी गांव के राम स्वरुप यादव एवं सुरेंद्र सिंह समेत कई दर्शकों ने ‘यूनीवार्ता’ को बताया कि मंचन स्थलों के आसपास के मुख्य मार्गों पर भारी वाहनों के चलने की तेज आवाजों के बीच कलाकारों की आवाजें दबती जा रही हैं।

उनका कहना है कि पिछले सालों की अपेक्षा कलाकारों की आवाजें कम सुनायी देती हैं लेकिन लोगों की भक्ति में कोई कमी नहीं आयी है। वे पहले की तरह ही श्रद्धा एवं भक्तिभाव से बड़े ध्यान से कलाकारों के बीच होने वाले संवादों के एक-एक शब्द सुनने की कोशिश करते हैं।

 

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