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सत्यजीत रे की फिल्मों से प्रेरित होकर निर्देशक बने बासु चटर्जी

सत्यजीत रे की फिल्मों से प्रेरित होकर निर्देशक बने बासु चटर्जी

मुंबई 04 जून (वार्ता) आम आदमी और मध्य वर्ग की थीम पर हंसती-गुदगुदाती रोमांटिक फिल्में बनाने वाले बासु चटर्जी महान फिल्मकार सत्यजीत रे से प्रेरणा लेकर निर्देशक बने थे।

राजस्थान के अजमेर में जन्में बासु चटर्जी ने होश मथुरा में संभाला था। यहीं पर उन्होंने इंटरमिडिएट तक पढ़ाई की। बासु दा के पिता रेलवे में थे इसलिए उनका ट्रांसफर होता रहता था। बासु दा को बचपन से ही खेलने और सिनेमा देखने का बहुत शौक था। फिल्मों का शौक उन्हें उनके बड़े भाई की वजह से मिला। वे करीब सात साल की उम्र से उनके साथ फिल्में देखने जाते थे। उन दिनों मथुरा में एक ही थिएटर था और उसमें जितनी भी फिल्में लगती थीं, बासु दा सब देखा करते थे।

मथुरा से स्नातक की पढ़ाई पूरी करने के बाद बासु मुंबई आ गए थे। शुरुआती दौर में उनकी निर्देशन में रुचि नहीं थी, शुरू में तो वे भी आम लोगों की तरह फिल्में देखते थे। मुंबई आने पर बासु 'फिल्म सोसायटी मूवमेंट' के साथ जुड़े, जहां दुनिया की अलग-अलग भाषाओं की अच्छी-अच्छी फिल्में दिखाई जाती हैं। यहां उन्हें हॉलीवुड के अलावा फ्रेंच, जर्मन, इतालवी, जापानी और अन्य भाषाओं की फिल्में देखने का मौका मिला, जिसके बाद उनका रुझान फिल्में बनाने की ओर आया। बासु दा ने अपने करियर की शुरुआत ब्लिट्स पत्रिका में बतौर कार्टूनिस्ट की थी।

इसी दौरान बासु दा ने 'बाइसिकल थीफ' देखी जो उन्हें बेहद पसंद आयी। इसके बाद बासु ने सत्यजीत रे की फिल्म 'पाथेर पांचाली' देखी और उनका झुकाव फिल्म निर्देशन की ओर हुआ। फिल्म निर्माण की काफी किताबें पढ़ने के बाद बासु दा को पता चला कि मथुरा के स्कूल के उनके सीनियर रहे कवि शैलेंद्र 'तीसरी कसम' नाम की फिल्म शुरू करने जा रहे हैं। वह उनसे जाकर मिले और साथ काम करने की इच्छा जताई। शैलेंद्र ने उन्हें फिल्म के निर्देशक बासु भट्टाचार्य से बात करने को कहा। तब बासु वीकली मैगजीन ब्लिट्ज में कार्टूनिस्ट थे, इस वजह से लोग उन्हें जानते थे और भट्टाचार्य जी ने भी ओके कर दिया। उस फिल्म में बासु को सीधे चीफ असिस्टेंट बना दिया गया।

वर्ष 1966 में बी. के. करंजिया एंड कंपनी के सहयोग से फिल्म वित्त निगम की स्थापना हुई तो समानांतर, सार्थक, नई लहर के सिनेमा की पहली फिल्म 'सारा आकाश' बनाने का निमंत्रण बासु दा को मिला। यह फिल्म हिंदी कथाकार राजेन्द्र यादव की कहानी पर आधारित थी। सत्यजीत राय से प्रभावित होने के कारण बासु दा ने इस फिल्म के कलात्मक पक्ष पर अधिक ध्यान दिया। नतीजा यह रहा कि फिल्म तो उम्दा बनी लेकिन टिकट खिड़की पर मार खा गई। इस फिल्म ने बासु दा को एक बेहतर फिल्मकार के रूप में स्थापित किया।

बासु दा की फिल्मों में कॉमेडी के साथ सटायर का जोरदार तड़का भी है। इसके पीछे का राज यह है कि वे अपने करियर के आरंभ में कार्टूनिस्ट और इलेस्ट्रेटर रहे थे। हिन्दी-अंग्रेजी साप्ताहिक 'ब्लिट्‍ज' में उन्होंने इन दायित्वों को लगभग बीस साल तक कुशलतापूर्वक निभाया। ब्रिटिश फिल्मकार अल्फ्रेड हिचकॉक और उनके सिनेमा से बासु दा काफी प्रभावित थे। दर्शकों को फिल्म देखते समय हास्य-व्यंग्य का एक जोरदार झटका देना उनकी अपनी स्टाइल रही है। इसके साथ ही अपनी फिल्म में किसी ऐरे-गैरे किरदार की वेशभूषा में वे पल-दो पल के लिए परदे पर आते रहे। हिचकॉक भी ऐसा करते थे। आगे चलकर शोमैन सुभाष घई ने भी यह फॉर्मूला अपनाया था।

अपनी बनाई फिल्मों में बासु दा की पसंदीदा फिल्म 'जीना यहां' थी, जो कि मन्नू भंडारी की कहानी 'यही सच है' पर आधारित थी। बासु दा की यह फिल्म चली नहीं थी, लेकिन फिर भी वो उनके दिल के सबसे करीब थी और उन्हें पसंद थी। ये फिल्म उन्हें इसलिए अच्छी लगी क्योंकि इसमें उन्होंने एक अलग तरह की वास्तविकता बताई थी।

बासु दा ने दूरदर्शन के लिए भी बेहतर काम किया था। 1985 में दूरदर्शन पर प्रसारित सीरियल 'रजनी' दर्शकों में इतना लोकप्रिय हुआ कि यह एक प्रकार से एक आंदोलन बन गया। प्रिया तेंडुलकर जैसी हिम्मत वाली नायिका के जरिए देश के तमाम उपभोक्ताओं को सावधान करने वाला यह धारावाहिक बेमिसाल था। 'रजनी' देख कर महिलाएं दुकानों से सामान खरीदती और क्वा‍‍लिटी घटिया होने पर दुकानदारों को सबक सिखाने के लिए तैयार रहती थीं। मनोहर श्याम जोशी लिखित 'कक्काजी कहिन' में राजनीतिक भ्रष्टाचार और नेताओं का दोहरा चरित्र उजागर किया गया था। 'दर्पण' धारावाहिक भारतीय भाषाओं की श्रेष्ठ कहानियों का गुलदस्ता था। 'ब्योमकेश बक्शी' जासूसी धारावाहिक था।

(संपादक कृपया पूर्व प्रेषित से जोड़ लें)

प्रेम सूरज

वार्ता

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