नयी दिल्ली, 16 जून (वार्ता) सिविल जज (जूनियर डिवीजन) के लिए तीन साल की वकालत अनिवार्य करने के उच्चतम न्यायालय के फैसले के खिलाफ समीक्षा याचिका दायर की गई है।
न्यायिक सेवा के इच्छुक याचिकाकर्ता अधिवक्ता चंद्रसेन यादव शीर्ष अदालत के 20 मई, 2025 के उस फैसले की समीक्षा की मांग की है, जिसमें सिविल जज (जूनियर डिवीजन) के पद के लिए परीक्षा में बैठने के वास्ते बार में कम से कम तीन साल की प्रैक्टिस अनिवार्य की गई है।
शीर्ष अदालत ने अपने फैसले में देश के सभी उच्च न्यायालयों और राज्य सरकारों को संबंधित सेवा नियमों में संशोधन करने का निर्देश दिया था, जिसके तहत सिविल जज (जूनियर डिवीजन) के रूप में न्यायिक सेवाओं में शामिल होने इच्छुक अभ्यार्थियों को अब अधिवक्ता के रूप में तीन साल का अनुभव अनिवार्य करने का प्रावधान करने को कहा था।
समीक्षा याचिका में श्री यादव ने तर्क दिया कि बार में तीन साल की प्रैक्टिस अनिवार्य करने की मनमानी और अनुचित शर्त लगाने के कारण संविधान के अनुच्छेद 14 और 16 के तहत उनके मौलिक अधिकारों का उल्लंघन हुआ है।
उन्होंने दलील दी कि न्यायाधीश पद पर नियुक्ति आवेदक के लिए नए प्रावधान के कारण उनके समान अवसर और सार्वजनिक रोजगार तक उचित पहुंच के अधिकार पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ रहा है।
अधिवक्ता कुनाल यादव के माध्यम से दायर याचिका में कहा गया है कि तीन साल की अनिवार्य वकालत के नियम अभी नहीं, बल्कि उसे वर्ष 2027 से ही लागू किया जाना चाहिए। इससे हाल ही में विधि स्नातक हुए (2023-2025) विद्यार्थी अनुचित तौर पर प्रभावित नहीं होंगे, जिन्होंने पिछले पात्रता मानदंडों के अनुसार तैयारी की थी।
शीर्ष अदालत के फैसले पर याचिका में कहा गया,“ऐसे नए विधि स्नातकों की संख्या या सफलता दर पर कोई विचार नहीं किया गया, जिन्होंने ऐतिहासिक रूप से न्यायिक सेवाओं में अच्छा प्रदर्शन किया है और प्रशिक्षण प्राप्त करने के बाद न्यायपालिका में प्रभावी ढंग से काम किया है। ऐसे तथ्य के अभाव में, यह निर्णय (शीर्ष अदालत का) संवैधानिक आवश्यकता का उल्लंघन करता है।”
याचिका में आगे तर्क दिया कि सभी राज्यों और उच्च न्यायालयों में समान रूप से सेवा नियमों में संशोधन करने का निर्देश राज्य विधानसभाओं और लोक सेवा आयोगों की शक्तियों का अतिक्रमण है, जिन्हें संवैधानिक रूप से अनुच्छेद 309 के तहत सेवा नियम और भर्ती मानदंड बनाने और न्यायिक भर्ती में राज्य की स्वायत्तता का अधिकार है।
याचिका में कहा गया,“भर्ती नियम विधायिका या राज्य लोक सेवा आयोगों के विशेष अधिकार क्षेत्र में हैं, न्यायपालिका के नहीं। एक समान जनादेश राज्य-विशिष्ट आवश्यकताओं और स्वायत्तता की अनदेखी करते हुए व्यापक नियम लागू करता है।”
याचिकाकर्ता ने यह भी तर्क दिया कि तीन साल की आवश्यकता महिलाओं, पहली पीढ़ी के वकीलों और आर्थिक रूप से कमजोर उम्मीदवारों को हतोत्साहित कर सकती है, जिनके पास स्थिर न्यायिक पद हासिल करने से पहले अनिश्चित वकालत (कानूनी अभ्यास) को बनाए रखने के साधन नहीं हो सकते हैं।
याचिकाकर्ता के मुताबिक तीन साल की वकालत आवश्यकता ने अपने प्रासंगिक कानूनी अनुभव के बावजूद, कानून फर्मों, सार्वजनिक उपक्रमों या कॉर्पोरेट कानूनी भूमिकाओं में काम करने वाले कानून स्नातकों को मनमाने ढंग से बाहर रखा। यह अनुचित वर्गीकरण के बराबर है और संविधान के अनुच्छेद 14 का उल्लंघन करता है।
याचिकाकर्ता ने यह भी कहा कि निर्देश (शीर्ष अदालत का) किसी भी अनुभव वाला अध्ययन या आंकड़ा द्वारा समर्थित नहीं था, जो यह दर्शाता हो कि तीन साल के अभ्यास वाले उम्मीदवार नए विधि स्नातकों की तुलना में बेहतर न्यायाधीश है।
याचिकाकर्ता ने समीक्षा याचिका में बताया कि सर्वोच्च न्यायालय ने नागालैंड, त्रिपुरा और छत्तीसगढ़ राज्यों और पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालय द्वारा प्रस्तुत किए गए तर्कों की अनदेखी की, जिन्होंने उक्त आवश्यकता का विरोध किया था।
शीर्ष अदालत ने एकतरफा रूप से 1999 की शेट्टी आयोग की रिपोर्ट को एक बार में ही नजरअंदाज करने का फैसला किया जबकि न्यायिक उम्मीदवारों/अधिवक्ताओं के लिए निचले स्तर/स्तर पर न्यायिक सेवा में प्रवेश करने से पहले तीन साल तक अभ्यास करना अनिवार्य बना दिया।
याचिका में कहा गया,“न्यायालय को शेट्टी आयोग की सिफारिशों की उचित रूप से सराहना करनी चाहिए थी, जिसमें स्पष्ट रूप से कहा गया था कि यदि युवा और मेधावी विधि स्नातकों को गहन प्रशिक्षण दिया जाता है, तो न्यायिक सेवा में प्रवेश के लिए बार में तीन साल के अभ्यास को पूर्व शर्त के रूप में निर्धारित करना आवश्यक नहीं हो सकता है।”
याचिका में यह भी तर्क दिया गया कि इस निर्णय ने विधि स्नातकों के एक पूरे वर्ग को पूरी तरह से अयोग्य घोषित कर दिया जबकि यह प्रमाणित नहीं किया गया कि तीन साल के अभ्यास के बिना प्रत्येक विधि स्नातक को अयोग्य क्यों (न्यायिक सेवा में प्रवेश के आवेदन के लिए) माना जाए।
याचिकाकर्ता ने कहा,“इस निर्णय (शीर्ष अदालत) ने विधि स्नातकों को 'साधारण स्नातक' के रूप में संदर्भित करके रिकॉर्ड पर स्पष्ट त्रुटि की है, जो एक भ्रामक विशेषता है।”
इस याचिका में कहा गया है कि न्यायिक सेवा के लिए चयनित उम्मीदवार ‘साधारण’ नहीं है, बल्कि वह है जो एक व्यापक प्रारंभिक परीक्षा, मूल और प्रक्रियात्मक कानूनों के ज्ञान का परीक्षण करने वाली मुख्य परीक्षा तथा वरिष्ठ न्यायाधीशों या अनुभवी कानूनी पेशेवरों द्वारा आयोजित अंतिम मौखिक परीक्षा सहित कठोर एवं बहु-स्तरीय चयन प्रक्रिया से गुजरा है।
याचिका में कहा गया है कि इस आदेश ने न्यायपालिका में वैध पेशा चुनने और उसे आगे बढ़ाने के लिए विधि स्नातक की स्वतंत्रता को भी अनुचित रूप से प्रतिबंधित कर दिया है, जिससे संविधान के अनुच्छेद 19(1)(जी) का उल्लंघन हुआ है।
बीरेंद्र.संजय
वार्ता