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दिल्ली में ‘इंटरनेशनल म्यूजियम एक्सपो’ कार्यक्रम का समापन

दिल्ली में ‘इंटरनेशनल म्यूजियम एक्सपो’ कार्यक्रम का समापन

नयी दिल्ली 20 मई (वार्ता) अंतरराष्ट्रीय संग्रहालय दिवस के अवसर पर केंद्रीय संस्कृति मंत्रालय ने प्रगति मैदान में 18 से 20 मई तक ‘इंटरनेशनल म्यूजियम एक्सपो’ का आयोजन किया। इसका उद्घाटन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने किया था। इस एक्सपो में तीन दिनों तक संग्रहालयों से जुड़े विभिन्न विषयों पर चर्चा हुई, जिसमें ख्याति प्राप्त राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय विशेषज्ञों ने भाग लिया। इस एक्सपो के अंतिम दिन शनिवार को एक अत्यंत महत्त्वपूर्ण विषय ‘डी-म्यूजियमाइजेशन ऑफ इंडियन म्यूजियम्स’ पर पैनल चर्चा हुई।

इस अवसर पर डॉ. सच्चिदानंद जोशी ने कहा कि संग्रहालय क्षेत्र में वर्तमान प्रवृत्ति यूरोप-केंद्रित हैं। भारतीय संदर्भ में इसे ब्रिटिश-दृष्टि की संज्ञा दी जा सकती है। संग्रहालय का क्षेत्र उन संग्रहकर्ताओं से विकसित हुआ, जो अमीर थे और दूर-दराज के स्थानों की यात्रा करते थे तथा एशिया, अफ्रीका, प्रशांत क्षेत्र, दक्षिण अमेरिका आदि उपनिवेशों से अपने देशों (मुख्य रूप से यूरोपीय) में वस्तुओं को लाते थे।

उन्होंने कहा कि संग्रहालय क्षेत्र पूरी दुनिया में यूरोपीय और अमेरिकी दृष्टि से विकसित हुआ। यहां तक कि ‘म्यूजियम’ शब्द की उत्पत्ति भी ग्रीक शब्द ‘म्यूज’ से हुई है। बहरहाल, ये सभी देश अपने पूर्व उपनिवेशों से लूटी गई, खरीदी गई और उपहारों में प्राप्त वस्तुओं से भरे पड़े हैं। इन वस्तुओं की व्याख्या पश्चिमी दृष्टिकोण के माध्यम से होती है।

डॉ जोशी ने कहा कि भारत में संग्रहालय विज्ञान (म्यूजियोलॉजी) का पाठ्यक्रम पश्चिम के पाठ्यक्रमों पर आधारित है। इस संदर्भ में हमें एक प्रवृत्ति देखने को मिलती है, जिसे वस्तुओं का म्यूजियमाइजेशन (संग्रहालयीकरण) कहा जा सकता है। इसमें वस्तुओं को संदर्भ से जोड़कर नहीं रखा या प्रदर्शित किया जाता है।

उन्होंने कहा कि भारत में पहले संग्रहालय की स्थापना के बाद से संग्रहालय का क्षेत्र इस तरह के सूक्ष्म भेदभाव से ग्रसित रहा है और यह भेदभाव अभी भी जारी है। भारत में कलाकृतियों और उनके संग्रह स्थल (जिसे वर्तमान में संग्रहालय के रूप में जाना जाता है) को पूरी तरह से पुनः परिभाषित किए जाने और स्पष्टीकरण की आवश्यकता है। यहां तक कि संरक्षण को भी भारतीय मान्यताओं के साथ तालमेल में होना चाहिए।

डॉ. सच्चिदानंद जोशी ने कहा, “मंदिर, गुरुद्वारा, मकबरा आदि जैसे हमारे सभी स्थान जीवित विरासत हैं, जिन्हें स्थानीय लोगों द्वारा पोषित किया जाता है। इन जगहों की व्यवस्था स्थानीय जरूरतों और संस्कृति के अनुसार विकसित की गई है। मूर्त और अमूर्त विरासत एक दूसरे से जुड़ी हुई हैं। ताजमहल, स्वर्ण मंदिर, मीनाक्षी मंदिर आदि जैसे हमारे स्थान हमारी सांस्कृतिक विरासत के प्रबंधन के जीवंत उदाहरण हैं। उन्होंने कहा कि कलाकारों के पास अपने अस्तित्व को बचाए रखने का एकमात्र विकल्प या तो महंगे डिजाइनरों के लिए उनके कारीगरों के रूप में काम करना है या फिर हाटों और एम्पोरियम में अपना सामान बेचना है। ये ‘वास्तविक कलाकार’ हमेशा इन बिचौलियों की दया पर निर्भर रहते हैं।अभी भी गांवों, आदिवासी संस्कृतियों, लोक परंपराओं के कलाकारों के लिए कारीगर शब्द का प्रयोग होता है। हम अभी भी औपनिवेशिक बोझ ढो रहे हैं, जो अपमानजनक है।

उन्होंने कहा कि यह उचित समय है कि संग्रहालयों को बड़े पैमाने पर जनता के लाभ के लिए भारतीय संदर्भ के अनुसार, संरक्षित, पुनर्परिभाषित, पुनः नामकरण और संप्रेषित किया जाए, जिसमें भारतीय कलाकार (लोक, आदिवासी, समकालीन), संगीतकार, नर्तक और सभी सांस्कृतिक रूप शामिल हैं। इससे भारत इस क्षेत्र में विश्व के सबसे समृद्ध देशों में शुमार हो सकता है।”

डॉ. जोशी ने बताया कि आईजीएनसीए भारत में प्रचलित रीति-रिवाजों का दस्तावेजीकरण करता रहा है। इसका एक उदाहरण तंजावुर के बृहदेश्वर मंदिर में हो रहा डॉक्यूमेंटेशन है। भारत और अन्य देशों में जहां सभ्यता और परंपरा की निरंतरता रही है, यह देखा गया है कि भारत के सुदूर सांस्कृतिक इलाकों में अभी भी कुछ महत्वपूर्ण मूर्त प्रथाओं का पालन किया जा रहा है।

इस पैनल चर्चा में इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केंद्र (आईजीएनसीए) के सदस्य सचिव डॉ. सच्चिदानंद जोशी, प्रसिद्ध भारतीय डिजाइनर व कला क्यूरेटर श्री राजीव सेठी, राष्ट्रीय संग्रहालय कोलकाता के महानिदेशक श्री अरिजीत दत्ता चौधरी, आबुधाबी स्थित लुव्र म्यूजियम के निदेशक मैनुएल रबाते, आईजीएनसीए के रांची क्षेत्रीय केंद्र के पूर्व क्षेत्रीय निदेशक डॉ. कुमार संजय झा और संरक्षण प्रभाग के अध्यक्ष डॉ. अचल पंड्या सहित अन्य लोग उपस्थित थे।

पैनल चर्चा में देश और दुनिया भर के संग्रहालय के निदेशकों और क्यूरेटरों के साथ-साथ, संग्रहालय विज्ञान के कई विद्यार्थियों ने भी भाग लिया।

श्रद्धा.संजय

वार्ता

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