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‘चमत्कारिक चावल’आईआर8 ने पूरा किया अपने जीवन का अर्द्धशतक

‘चमत्कारिक चावल’आईआर8 ने पूरा किया अपने जीवन का अर्द्धशतक

नयी दिल्ली,28 नवंबर(वार्ता) साठ और सत्तर के दशक में अकाल के खतरे की आशंका से जूझ रहे एशियाई देशों खासकर भारत को खाद्य सुरक्षा के क्षेत्र में आत्मनिर्भर बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाली धान की प्रजाति आईआर8 अपने जीवन का शानदार अर्द्धशतक पूरा करने के बाद भी खाद्यान्न क्षेत्र में भी अपना महती योगदान बनाये हुए है। पचास के दशक में एशिया में जब खाद्यान्न संकट था और लाखों लोगों पर भुखमरी का खतरा मंडरा रहा था तब वर्ष 1960 में उच्च उत्पादकता वाली चावल की प्रजातियां विकसित करने के लिए फिलीपीन्स मेें लगुना प्रांत के लास बनोस शहर में अंतरराष्ट्रीय चावल अनुसंधान संस्थान (आईआरआरआई) की स्थापना की गयी । डॉ पीटर जेनिंग्स के नेतृत्व में गहन अनुसंधान के बाद वैज्ञानिकों एक दल ने आईआर8 प्रजाति को विकसित कर इसे लास बनोस शहर के ही खेतों में उपजाया। इसका पहले ही परीक्षण में प्रति हेक्टेयर औसत उत्पादन 9.4 प्रति हेक्टेयर रहा। आईआर8 का सर्वोच्च उत्पादन 10.3 प्रति हेक्टेयर तक भी रिकार्ड किया गया । वैज्ञानिक इसके नतीजों से चौंक गये और इसके वृहद विस्तार की योजना बना डाली । आईआरआरआई ने 28 नवंबर 1966 को क्रांतिकारी आईआर8 प्रजाति को विकसित कर लेने की घोषणा की। उस समय खाद्यान्न उत्पादन बढ़ाने के लिए किसी उच्च उत्पादकता वाली धान प्रजाति की न केवल फिलीपीन्स बल्कि वियतनाम, म्यांमार(तत्कालीन बर्मा),कम्बोडिया,इंडोनेशिया ,मलेशिया और इनमें सबसे बड़े देश भारत में शिद्दत से जरूरत महसूस की जा रही थी ।


‘चमत्कारिक चावल’ का नाम पाये इस प्रजाति के विकसित होने के कल 50 वर्ष पूरे होने के मौके पर आईआरआरआई में ‘फारमर्स एंड पार्टनर्स डे’आयोजित किया है । इसमें विश्व भर के अनेक वैज्ञानिक और खाद्य सुरक्षा से जुड़े अधिकारी शामिल होंगे और अपने अनुभव साझा करेंगे । भारत में वर्ष 1967 में आंध्रप्रदेश में पश्चिम गोदावरी जिले के अटचांटा में डॉ एन सुब्बाराव ने दो हजार हेक्टेयर क्षेत्र में आईआर8 धान की प्रजाति को उपजाया था। देश में इस पहले ही प्रयोग में इसका उत्पादन सात टन प्रति हेक्टेयर रिकार्ड किया गया । उस समय यहां परम्परागत धान की प्रजातियों का उत्पादन औसत दो टन प्रति हेक्टेयर था । डॉ सुब्बाराव के इस प्रयोग के बाद आईआर8 की भारत में वृहद पैमाने पर विस्तार की योजना बनायी गयी और देश के प्रत्येक धान उत्पादक क्षेत्रों तक इसे पहुंचाया गया। कम ऊंचाई वाले तने की धान की इस प्रजाति में राेग और कीट प्रतिरोधक क्षमता भी बहुत उच्च होती है । इसकी पैदावार करीब 105 दिनों में हो जाती है । धान की इस प्रजाति ने न केवल भारत को धान उत्पादन के क्षेत्र में न केवल आत्मनिर्भर बनाया बल्कि देश चावल निर्यातक देशों की सूची में शामिल हो गया । जाने-माने कृषि वैज्ञानिक डॉ एम एस स्वामीनाथन ने धान की आईआर8 प्रजाति की भारत में सफलता का श्रेय इसकी उच्च उत्पादक क्षमता,इसके उत्पादन में प्राैद्योगिकी के इस्तेमाल और सरकारी नीतियों को देते हुए कहा कि वर्ष 1967 में आंध्रप्रदेश से शुरू हुआ इसका सफर जल्द ही देश के प्रत्येक धान उत्पादक क्षेत्रों तक पहुंच गया था। इसने भारत को धान उत्पादन क्षेत्र में आत्मनिर्भर बनाने में बड़ा योगदान दिया है।


डॉ स्वामीनाथन ने बताया कि किसान इसकी खेती से बहुत लाभान्वित हुए और सत्तर के दशक में आंध्रप्रदेश के एक किसान ने तो इसकी उत्पादन क्षमता से प्रभावित होकर अपने पुत्र का नाम भी इस प्रजाति के नाम पर रख दिया था। सत्तर के दशक में ही धान की इस प्रजाति का विस्तार एशियाई देशों में हो गया और भारत सहित कई देशों में ‘हरित क्रांति’लाने में इसने महती भूमिका निभायी । इस प्रजाति से ही विकसित धान की कई किस्में अब भी विश्व के कई देशों में अपना परचम लहरा रही हैं । आईआर8 के विकसित होने के 50 वर्ष पूरे होने के मौके पर भारत में भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद ने 21 नवम्बर को यहां एक कार्यक्रम आयोजित किया था जिसमें अनेक वैज्ञानिकों ने भाग लिया और इस प्रजाति के बारे में अपने अनुभव और सुझाव पेश किये । हाई ब्रीड या अानुवंशिक रूप से संवर्धित फसलों के दौर के आ जाने के बावजूद आईआर8 धान की प्रजाति के खाद्यान्न क्षेत्र में दिये गये के योगदान को हमेशा-हमेशा याद किया जाता रहेगा । श्रवण उपाध्याय टंडन वार्ता

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