लोकरुचिPosted at: Dec 16 2017 10:40AM इतिहास बन चुकी है दुल्हन की डोली
देवरिया,16 दिसम्बर (वार्ता) नयी नवेली दुल्हन को पीहर से ससुराल ले जानी वाली डाेली बदलते जमाने के साथ इतिहास के पन्नो तब्दील हो चुकी है।
शहरी इलाकों में तो डोली का युग समाप्त हुये दशकों बीत चुके है मगर पूर्वी उत्तर प्रदेश और बिहार के ग्रामीण अंचलों में डोली से विदा करने का रिवाज करीब दो दशक पहले तक जिंदा था। डोली से शादी की रस्म अदायगी परक्षावन किया जाता था और महिलाएं एकत्रित होकर मांगलिक गीत गाते हुये गांव के देवी-देवताओं के यहां माथा टेकाते हुये दूल्हे, दुल्हन को उनके ससुराल भेजती थी।
डोली की सवारी भारत में आदिकाल से रही है। पहले राजा महाराजा भी डोली पालकी की सवारी करते थे। रानियां भी डोली पालकी से आती जाती थी। कहा जाता है कि डोली ढोने वालों को कांनहबली कहा जाता था। डोली ढोने के लिये छह आदमी की टोली होती थी जो अपने कहारों को बदलते हुये कोसों लेकर जाते थे। बदलते परिवेश में डोली की जगह अब लग्जरी गाड़ियों ने ले ली है।
वयोवृद्ध समाजसेवी मंगली राम कहते हैं कि पहले एक गीत चलता था ‘चलो रे डोली, उठाओ कहार’ अब लोगों के जेहन से भूलता जा रहा है। अब तो आज के बच्चे डोली को साक्षात देख भी नहीं सकते। कारण अब डोली काफी ढूंढने के बाद बमुश्किल से कहीं देखने को मिल सकती है।
आज के बच्चे डोली के बारेे में जानने के लिये अब डोली को गूगल में सर्च कर या पुरानी फिल्मों को देखकर जानेंगे कि यह डोली है।
देवरिया निवासी और संस्कृत के जानकार पं. विश्वनाथ दुबे ने बताया कि पहले आवागमन का सही रास्ता न होने के कारण डोली का प्रयोग होता रहा था जिसमें डोली को छह लोगों की टीम गीत गाते कोसों दूर शादी के समय दूल्हे दुल्हन को लेकर चलते थे और इस दौरान कही किसी गांव के पास रूककर आराम करने के बाद वे फिर से अपने गन्तव्य की ओर चल देते थे।