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लोकरुचि


कांवड़ यात्रा एक कठिन तपस्या, अश्वमेघ यज्ञ फल देने के बराबर

कांवड़ यात्रा एक कठिन तपस्या, अश्वमेघ यज्ञ फल देने के बराबर

इलाहाबाद, 09 अगस्त (वार्ता) हिन्दू मान्यताओं के अनुसार श्रावण मास में आराध्य देवाधिदेव महादेव को प्रसन्न करने के लिए की गयी कांवड यात्रा कठिन तपस्या के साथ हर कदम अश्वमेघ यज्ञ फल देने के बराबर मानी गयी है।

कांवड यात्रा के दौरान श्रद्धालु बांस की एक पट्टी के दोनों किनारों पर कलश अथवा प्लास्टिक के डिब्बे में गंगाजल भर कर उसे अपने कंधे पर लेकर महादेव के ज्योतिर्लिंगों के अभिषेक की परंपरा को ‘कांवड़ यात्रा’ कहते है। फूल-माला, घंटी और घुंघरू से सजे दोनों किनारों पर वैदिक अनुष्ठान के साथ गंगाजल भर कर ‘बोल बम’ का नारा, ‘बाबा एक सहारा’ का जयकारा लगाते हुए कांवडिये आराध्य देव का अभिषेक करने गाजे-बाजे के साथ समूह में निकल पडते हैं।

कांवड़ परंपरा की शुरूआत कब से हुई इसका कोई साक्ष्य उपलब्ध नहीं है। अलबत्ता इसके आरंभ को लेकर विद्वानों के अलग-अलग मत हैं। कुछ का मानना है कि पहले भगवान परशुराम ने कांवड़ से गंगाजल लाकर उत्तर प्रदेश में मेरठ के गढ़मुक्तेश्वर से गंगाजल लाकर बागपत के पास स्थित 'पुरा महादेव' का जलाभिषेक किया था। इस कथा के अनुसार आज भी श्रद्धालु गढ़मुक्तेश्वर से गंगाजल लाकर पुरा महादेव का अभिषेक करते हैं।

पुराणों और कथाओं के अनुसार श्रवण कुमार ने त्रेता युग में कांवड़ यात्रा की शुरुआत की थी। अपने दृष्टिहीन माता-पिता को तीर्थ यात्रा कराते समय जब वह हिमाचल के ऊना में थे तब उनसे उनके माता-पिता ने हरिद्वार में गंगा स्नान करने की इच्छा व्यक्त की। उनकी इच्छा को पूरा करने के लिए श्रवण कुमार ने कांवड़ में बैठाया और हरिद्वार लाकर गंगा स्नान कराए। वहां से वह अपने साथ गंगाजल भी लाए और शिवालय पर चढाया। माना जाता है तभी से कांवड़ यात्रा की शुरुआत हुई।

वैदिक शोध संस्थान एवं कर्मकाण्ड प्रशिक्षण केन्द्र के पूर्व आचार्य डा आत्मा राम गौतम ने बताया कि ‘कस्य आवर: कांवर: अर्थात परमात्मा का सर्वश्रेष्ठ वरदान है, कांवर। यह यात्रा गंगा का शिव के माध्यम से प्रत्यावर्तन है। पौराणिक मान्यता है कि कांवड यात्रा एवं शिवपूजन का आदिकाल से ही अन्योन्याश्रित संबंध है। लिंग पुराण में इसका विस्तृत वर्णन है। कांवड यात्रा करना अपने आप में एक कठिन तपस्या है।

आचार्य ने बताया कि यह यात्रा अपने आप में एक कठिन तपस्या है। कांवड़ लेकर श्रद्धालु नंगे पैरों अपने गन्तव्य तक लगभग पैदल यात्रा करता है। इस दौरान उनके पैर सूज जाते हैं और छाले पड़ जाते हैं। श्रद्धालुओं की आराध्य के प्रति सच्ची आस्था राह में पड़ने वाली हजारों परेशानियों पर भारी पड़ती है। पैरों के छाले श्रद्धालुओं की राह में कांटे बिछाने का काम करते हैं। हर असह्य दर्द, “बोल बम का नारा है भोले का सहारा है” का जप उनमें अराध्य की ओर बढ़ने की नयी उर्जा का संचार करता है।

उनका कहना है कांवड़ शिव की आराधना का ही एक रूप है। वेद-पुराणों समेत भगवान भोलेनाथ में भरोसा रखने वालों को विश्वास है कि कांवड़ यात्रा में जहां-जहां से जल भरा जाता है, वह गंगाजी की ही धारा होती है। मान्यता है कि कांवड़ के माध्यम से जल चढ़ाने से मन्नत के साथ-साथ चारों पुरुषार्थों की प्राप्ति होती है। तभी तो सावन शुरू होते ही इस आस्था और अटूट विश्वास की अनोखी कांवड यात्रा से पूरा देश- प्रदेश केशरिया रंग से सराबोर हो जाता है।

उन्होंने बताया कि सावन में पूरा माहौल शिवमय हो जाता है। इतना ही नहीं, देश के अन्य भागों में भी कांवड यात्राएं होती हैं। अगर कुछ सुनाई देता है तो वो है “हर-हर महादेव की गूंज, बोलबम का नारा।” ऐसा नहीं है कि कांवड़ यात्रा कोई नयी बात है। यह सिलसिला सालों से चला आ रहा है। फर्क बस इतना है कि पहले इक्का-दुक्का शिव भक्त ही कांवड़ में जल ले जाने की हिम्मत जुटा पाते थे, लेकिन पिछले कुछ सालों से शिव भक्तों कि संख्या में इजाफा हुआ है।

आचार्य गौतम ने बताया कि उत्तर भारत में विशेष रूप से पश्चिमी एवं पूर्वी उत्तर प्रदेश में पिछले करीब एक दशक से कांवड़ यात्रा एक पर्व “कुंभ मेले” के समान एक महा आयोजन का रूप ले चुकी है जिसमें करोड़ो श्रद्धालु शिरकत करते हैं।

आनंद रामायण के अनुसार भगवान श्री राम ने कांवड़िया बनकर सुलतानगंज से जल लिया और देवघर स्थित बाबा बैद्यनाथ ज्योतिर्लिंग का अभिषेक किया। मान्यताओं के अनुसार माता पार्वती ने भी भगवान भेलेनाथ को प्रसन्न करने के लिए मानसरोवर से कांवड में जल लाकर उनका अभिषेक किया है।

उन्होंने बताया कि इस धार्मिक यात्रा की विशेषता यह भी है कि सभी कांवड़ यात्री केसरिया रंग के वस्त्र ही धारण करते हैं। केसरिया रंग जीवन में ओज, साहस, आस्था और गतिशीलता बढ़ाने वाला होता है। एक समय था कि जब प्रायः पुरूष विशेषकर युवा ही कांवर लेने जाते थे, परन्तु आज बदलते परिवेश में प्रायः स्त्री, पुरूष, युवा, बुर्जुग एवं बच्चे भी भोले की कांवर उठाने में पीछे नहीं है।

आचार्य ने बताया कि शिव पुराण में श्रावण मास में “शिव” आराधना और गंगाजल से अभिषेक का बहुत महत्व बताया गया है। कंधे पर कांवड़ रखकर बोल बम का नारा लगाते हुए चलना भी पुण्यदायक होता है। इसके हर कदम के साथ एक अश्वमेघ यज्ञ करने जितना फल प्राप्त होता है। हर साल श्रावण मास में लाखों की संख्या में कांवड़िये गंगा जल से शिव मंदिरों में महादेव का जलाभिषेक करते हैं।

उन्होंने बताया कि भोलेनाथ के भक्त यूं तो साल भर कांवड़ चढ़ाते रहते हैं। सावन का महीना भगवान शिव को समर्पित होने के कारण इसकी धूम कुछ ज्यादा ही रहती है । श्रावण मास में कावंडियों के बोल बम, हर हर महादेव के जयकारों से लगता है पूरा देश शिवमय हो गया है। अब कांवड़ सावन महीने की पहचान बन चुका है।

श्री आचार्य ने बताया कि श‌िव पुराण में बताया गया है क‌ि सावन में शिव पुराण का पाठ और श्रवण मुक्त‌िदायी होता है। शिव भक्त कंधे पर भक्ति, आस्था, विश्वास की कांवड़ लिये अपनी मंजिल की तरफ बढ़ते जाते हैं। श्रावण माह कांवड़ यात्रा के लिए अलग पवित्रता रखता है। कांवड़ियों की यह यात्रा सबसे बड़ी धर्मयात्रा होती है।

दारागंज निवासी मोहन मिश्र (60) ने बताया कि वह पिछले 40 वर्षों से कांवड़ लेकर बनारस बाबा विश्वनाथ को जल चढाने जाते रहे है। हालांकि पिछले दो-तीन वर्षों से स्वास्थ्य इस कठिन तपस्या के लिए सहायक नहीं हो रहा है इसलिए पावन कार्य से वंचित है। उन्होंने बताया कि कांवड़ कई प्रकार के होते है। सामान्य कांवड़, डाक कांवड़, खड़ी कांवड़ और दंड़ी कांवड। इसमें सबसे कष्टकारी डाक कांवड़ और दंड़ी कावड़ होती है।

श्री मिश्र ने बताया कि सामान्य कांवड में कांवड़िए कांवड़ यात्रा के दौरान जहां चाहे रुककर आराम करते हैं। आराम करने के दौरान कांवड़ स्टैंड पर रखी जाती है, जिससे कांवड़ जमीन से न छूए। डाक कांवड़ में कांवड़िया कांवड़ यात्रा की शुरुआत से शिव के जलाभिषेक तक लगातार बिना रूके चलते रहते हैं। आराध्य शिवधाम तक की यात्रा एक निश्चित समय में तय करते हैं। खड़ी कांवड़ में भक्त खड़ी कांवड़ लेकर चलते हैं। इस दौरान उनकी मदद के लिए कोई सहयोगी उनके साथ चलता है। जब वे आराम करते हैं, तो सहयोगी अपने कंधे पर उनकी कांवड़ लेकर चलने के क्रिया में हिलाते-डुलाते रहते हैं।

दंडी कांवड़ में भक्त नदी तट से शिवधाम तक की यात्रा दंडवत देते हुए पूरी करते हैं। कांवड़ पथ की दूरी को अपने शरीर की लंबाई से लेट कर नापते हुए यात्रा पूरी करते हैं। यह बेहद मुश्किल होता है और इसमें एक महीने तक का वक्त लग जाता है। इस यात्रा में बिना नहाए कांवड़ यात्री कांवड़ को नहीं छूते। तेल, साबुन, कंघी की भी मनाही होती है। यात्रा में शामिल सभी एक-दूसरे को बम (बोल बम) कहकर ही बुलाते हैं।

वार्ता

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