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जीते जी न तो बड़ा पुरस्कार मिला, न सभापति ही बनाये गए प्रेमचंद

जीते जी न तो बड़ा पुरस्कार मिला, न सभापति ही बनाये गए प्रेमचंद

नयी दिल्ली 30 जुलाई (वार्ता) उपन्यास सम्राट मुंशी प्रेमचंद मरने के बाद भले ही अमर साहित्यकार हो गये हो लेकिन जीते जी उन्हें कोई ख्याति नहीं मिली। हिन्दी के सबसे प्रसिद्ध कथाकारों में शुमार मुंशी प्रेमचंद को भी अपने ज़माने का सबसे प्रतिष्ठित ‘मंगला प्रसाद पारितोषिक’ सम्मान नहीं मिला था और वह कभी भी हिंदी साहित्य सम्मेल्लन के सभापति नहीं बनाये गए। इतना ही नहीं प्रकाशक नहीं मिलने के कारण उन्हें अपनी शुरुआती दौर में पांच पुस्तकें खुद छापनी पडी थीं और वह किताबें भी बहुत कम बिकी थीं। सामाजिक कुरीतियों पर प्रहार करने वाले प्रेमचंद को उस जमाने में बेटी की शादी के लिए पांच हज़ार रुपये दहेज़ में देने पड़े थे। प्रेमचंद अपनी पत्नी की बीमारी और आर्थिक कारणों से शांति निकेतन जाकर टैगोर से नहीं मिल सके लेकिन टैगोर उनकी चुनी हुई कहानियों के बंगला अनुवाद देखना चाहते थे। प्रेमचंद के समकालीनों द्वारा उन पर लिखे गए संस्मरणों की पुस्तक में यह बात सामने आयी है। प्रेमचन्द साहित्य के विशेषज्ञ एवं केन्द्रीय हिंदी साहित्य संस्थान के उपाध्यक्ष डॉ कमल किशोर गोयनका द्वारा सम्पादित पुस्तक में आचार्य चतुरसेन शास्त्री, पंडित बनारसी दस चतुर्वेदी, सूर्य कान्त त्रिपाठी निराला, आचार्य शिवपूजन सहाय, बालकृष्ण शर्मा, नवीन चन्द्रगुप्त विद्यालंकार, मन्मथ नाथ गुप्त जैनेन्द्र, हरिवंश राय बच्चन के अलावा उनके पुत्र अमृत राय के संस्मरण हैं और उनकी पुत्री श्रीमती कमला देवी का इंटरव्यू भी शामिल है। सामयिक प्रकाशन द्वारा प्रकाशित पुस्तक ‘प्रेमचंद: कुछ संस्मरण’ में चन्द्र गुप्त विद्यालंकार ने लिखा है, “प्रेमचंद जी विशेष प्रकार के साहित्यिक जीव नहीं थे। उन्होंने कभी कोई गुट बनाने का प्रयत्न नहीं किया, न कभी उन्होंने सामाजिक राजनीतिक या धार्मिक नेताओं के पास अपनी पहुँच बनाने की कोशिश की। संभवतः यही करण था कि न तो उन्हें कभी मंगलाप्रसाद पारितोषिक सम्मान मिल सका और न कभी वह हिंदी साहित्य के सभापति बनाये गए।”


                                          मुंशी प्रेमचंद ने 1930 में बनारसी दास चतुर्वेदी को एक पत्र में लिखा कायाकल्प आज़ाद- कथा, प्रेम तीर्थ ,प्रेम प्रतिमा और प्रतिज्ञा नामक उपन्यास मैंने खुद छपी लेकिन अभी तक मुश्किल से 600 रुपये वसूल हुए और प्रतियाँ पडी हैं फुटकर आमदनी लेखों से शायद 25 रुपये मासिक अाय हो जाती है मगर अब इतनी भी नहीं होती । 800 रुपये में रंगभूमि और प्रेमाश्रम दोनों का अनुवाद दे दिया था लेकिन कोई छपने वाला ही नहीं मिलता था। बनारसी दास ने लिखा है हंस और जागरण में प्रेमचंद को निरंतर घाटा होता ही रहा और कभी कभी तो यह घाटा दो सौ रुपये से भी अधिक हो जाता था , इसके करण वह अत्यंत चिंतित रहते थे। उन्होंने यह भी लिखा है, “प्रेमचंद जी के जीवन में हम लोग उनका कुछ भी सम्मान न कर सके यद्यपि वे सम्मान के भूखे न थे । जब नागपुर सम्मेल्लन के अवसर पर मैंने उनके सभापति होने का प्रस्ताव विशाल भारत में किया था तो उन्होंने एक पत्र में मुझे अपनी अनिच्छा तथा उदासीनता का वृतांत लिख भेजा था। हम लोगों का भी कर्तव्य था कि उनका सम्मान करके स्वयं अपने को तथा अपनी संस्था को गौरवान्वित करते।” निराला ने लिखा है, “कितने दुःख की बात है हिन्दी के जिन पत्रों में हम राजनैतिक नेताओं के मामूली बुखार का तापमान प्रतिदिन पढ़ते रहतें हैं उनमे श्री प्रेमचंद की हिन्दी का महान उपकार करने वाले प्रेमचंद की अस्वस्थता की साप्ताहिक खबर भी हमें पढने को नहीं मिली। यह सिर्फ दुःख नहीं बल्कि लज्जा की बात है , हिन्दी भाषियों के लिए मर जाने की बात है।” शिवपूजन सहाय ने लिखा है, “हंस और जागरण में बराबर घटा ही रहा पुस्तकें काफी बिकती न थी। हिन्दी के प्रकाशकों से कुछ मिलता न था। भारत भारती के बराबर उनकी किसी पुस्तक के संस्करण न हुए बल्कि उनकी उर्दू पुस्तकों का बाज़ार पंजाब में बहुत अच्छा था मौलाना मोहम्मद अली कभी कभी मनीआर्डर न भेजकर गिन्नी ही पार्सल से भेजते थे।”

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