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आज भी याद आते हैं जिगर मुरादाबादी

मुरादाबाद, 09 सितंबर(वार्ता) शायद ही कोई ऐसा जलसा या राजनीतिक मंच होता था जहां जिगर मुरादाबादी साहब की शायरी के बिना शुरू हो । आज उनकी पुण्यतिथि है । चुनावी रैली, सभाओं का आगाज उनकी सबसे चर्चित शायरी 'उनका जो फर्ज है वो अहले सियासत जाने, मेरा पैगाम मुहब्बत है जहां तक पहुंचे' से ना होता हो।
मशहूर शायर जिगर मुरादाबादी की कलम से लफ्ज निकले वह जमाने के लिए मिसाल बन गए। जिगर मुरादाबादी की शायरी की खुशबू आज भी उनके वजूद का अहसास कराती है।
उत्तर प्रदेश के मुरादाबाद शहर के मुहल्ला लालबाग में छह अप्रैल 1890 में सैयद अली नजर के घर में सैयद अली सिकंदर पैदा हुए, जिगर साहब ने देश-दुनिया में पीतल नगरी के नाम को मशहूर कर दिया। शायरी जिगर साहब को विरासत में मिली थी। महज 13 साल की उम्र में उन्होंने अपने हुनर का जलवा दिखाते हुए पहली गजल लिखी। जिसके बाद उनकी कलम से एक के बाद एक दिल को सुकून पहुंचाने वाली नज्में निकलती रहीं। 1921 में उनकी पहली किताब दाग-ए-जिगर प्रकाशित हुई। निजी जिंदगी के साथ ही पारिवारिक जीवन भी संघर्ष वाली रही। उनका शायरी से नाता मरते दम तक रहा। तकरीबन 70 साल तक उर्दू शायरी के शहंशाह रहे जिगर मुरादाबादी ने आखिरी सांस जिला गाेंडा में नौ सितंबर 1960 को ली थी।
मुरादाबाद शहर में उनकी याद में आज भी मुशायरे होते हैं।यहां जिगर द्वार, जिगर कालोनी ,जिगर सोसायटी, जिगर मिशन, जिगर गेट, जिगर मंच, जिगर रोड उनकी याद को ताजा बनाए हुए है।
पहला काव्य संग्रह 'दाग ए जिगर' के नाम से 1919 में प्रकाशित हुआ था। उर्दू, फारसी और हाईस्कूल तक अंग्रेजी भाषाओं के जानकार थे जिगर साहब।बताते हैं कि परिवार के बुजुर्गों ने जायदाद को वक्फ अलल औलाद कर दिया था। उनके गोंडा जाने जानेे के बाद मकान खाली रहा।
सं विनोद
वार्ता
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