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लोकरूचि-फागुआ गीत दो अंतिम प्रयागराज

श्री यादव ने बताया कि अब न/न फगुआ गाने वाले कलाकार रहे और नहीं उनके कद्रदान। जैसे जैसे पुरानी पीढ़ी खत्म होती जा रही है फगुआ गीत भी दम तोड़ रही है। नए लोग इसे विधा को हीन भावना से देखते हैं, इसे सीखने का भी प्रयास नहीं करते हैं। इस विधा को रूढ़िवादिता की संज्ञा देकर तिरस्कार कर रहे है और पाश्चात्य शैली की चादर ओढ़कर अपनी संस्कृति और संस्कार से दूर होती जा रहे है।
उन्होंने बताया कि फागुन महीने की शुरुआत होते ही गांवों में ढोल मजीरे की धुन पर फाग गीत गाने वालों की लंबी टोलियां दिखाई पड़ती थी। होली के उमंग में डूबे लोग टोलियां बनाकर घर.घर जाकर फाग गीत गाते देखे जाते थे। आज गांव की गलियां टोलियों और गीतों से बेजार हैं। गिने चुने दिन रह गए लेकिन फगुआ के रस भरी गीतों का मानों अकाल ही पड़ गया है। आज फगुआ गवैयों के सामने सबसे बड़ी चुनौती आर्थिक तंगी है। पहली बात पुरानी पीढ़ी खत्म होती जा रही है। युवा पीढ़ी इससे दूरी बना रही है। अब दो-चार गांवों में यदा-कदा कोई व्यक्ति मिल जाए अन्यथा अब कोई रह ही नहीं गया। परिवार की रोजी रोटी के लिए लोगों को घर के बाहर निकलना पड़ा है। पहले गांवों में व्यवस्था हो जाती थी लेकिन अब ऐसा कुछ नहीं है।
झलवा निवासी एक अन्य गवैया सुखदेव मिश्र ने बताया कि भारतीय संस्कृति से सराबोर होकर लोग सारे द्वेष कटुता को भूल अपने आप को एक टोली में समाहित कर आपसी भाईचारा का संदेश देते थे। मिलजुलकर गाया जाने वाला फाग गीत गांव की मिट्टी की खुशबू प्रदान करती थी। इन गीतों में भारत की सांस्कृतिक, धार्मिक तथा पारंपरिक रीति-रिवाजों की झलक देखने को मिलता था।
उन्होने बताया कि गीत हमारी लोक संस्कृति की पहचान होती है। समय के साथ सब कुछ बदलने लगा। रिश्ते औपचारिक होते गए और होली की पुरानी परंपरा बदलने लगी। रस्म अदायगी के तौर पर होली गीत अब कहीं कहीं सुनने को मिलते हैं।अब ये पुराने दिनों की तरह सिर्फ स्मृतियों में बसे हैं।
आज भेदभाव एवं वैमनस्यता के चलते अब त्योहारों के भी कोई मायने नहीं रह गए हैं। अब धीरे.धीरे सिर्फ परंपराओं का निर्वाहन मात्र किया जा रहा है। आज होली पर फाग गायन नहीं सुनाई देते हैं। लोगों का मानना है कि टीवी की मनोरंजन संस्कृति के चलते जहां पुरानी परंपराएं दम तोड़ रही है। वहीं आज की युवा पीढ़ी पुरानी संस्कृतियों को सीखना नहीं चाहती है। यही कारण है कि होली के त्योहार पर फाग गायन अब धीरे.धीरे खत्म सा होता जा रहा है। होली के त्योहार पर फाग गायन का विशेष महत्व है। फाग गायन संगीत की एक विशेष कला है। जिसमें रागों के साथ ताल का भी मेल होता है।
श्री मिश्र ने बताया कि एक समय था कि फागुन माह आते ही ढोल मजीरों की थाप और फगुआ गीतों की गूंज लोगों को आह्लादित कर देती थी। अब पुराने गीत स्मृतियों में ही रह गये हैं। अब समय के साथ साथ स्वस्थ पारंपरिक फागुआ गीतों की परंपरा भी लुप्त होती जा रही है। हालांकि गांवों में कुछ बुजुर्ग कहीं-कहीं इस परंपरा को जीवित करने की कवायद में लगे हुए हैं। अस्सी के दशक में फाल्गुन मास आते ही जगह.जगह फाग गीतों व ढोल मजीरों की आवाजें लोगों को घरों से निकलने को विवश कर देती थी। लोग साथ बैठकर स्वस्थ पारंपरिक फगुआ गीतों का आनंद लेते थे। अब गांव में न अब वह टोली दिखती है न वह स्वस्थ पारंपरिक गीत । वह परंपरा अब लुप्त होने के कगार पर है ।
उन्होंने बताया कि अब न/न फगुआ गीत के गवैया रह गये और नहीं उसके कद्रदान। फागुन मास गर्मी, बरसात और सर्दी जैसे मौसम का ऋतुराज है तो फगुआ गीत रसराज है। सभ्य समाज की आधुनिक अवधारणा ने लोक भाषा में गायी जाने वाली फगुआ गीतों की गुनगुनाने वाली परंपरा पर असभ्य संस्कृति समाज की द्वीअर्थी भाषा समृद्धशाली होती जा रही है। नई पीढ़ी में फगुआ गीत कला को सीखने की ललक नहीं रह गयी। वह तो पाश्चात्य गीतों की धुनों में मस्त रहना ही पसंद है। पुरनिया गवैयों के गुजरने के कारण सदियों से चली आ रही परंपराएं दम तोड़ रही हैं।
दिनेश प्रदीप
वार्ता
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