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कद्रदानों के अभाव में दम तोड़ रहा है फगुआ गीत

प्रयागराज, 22 मार्च (वार्ता) भारतीय संस्कृति के परंपरागत सामूहिक उत्साह और उल्लास का प्रतीक ‘फगुआ’ गीत कलाकारों और कद्रदानों के आभाव में दम तोड़ रहा है।
धार्मिकता के पुट लिये फगुआ के कर्ण प्रिय गीतों के दम तोड़ने के पीछे कोई एक कारण नहीं है। इसके पीछे आर्थिक तंगी, सामाजिक प्रोत्साहन, पाश्चात्य शैली, कलाकार, कद्रदान और लेखन का हृास जैसे तमाम कारणों ने इस पारंपरागत गीत की मिठास को प्रभावित किया है। नई पीढ़ी इस विधा को रूढ़िवादिता की संज्ञा देकर तिरस्कार कर रही है और पाश्चात्य शैली की चादर ओढ़कर अपनी संस्कृति और संस्कार से दूर होती जा रही है।
माघ मास की बसंत पंचमी से ही गांवों में हाेलिका स्थापित करने एवं फगुआ गीतों के गुनगनाने की परंपरा शुरू हो जाती थी। भारतीय संस्कृति के परंपरागत सामूहिक उत्साह और उल्लास के प्रतीक फगुआ गीत को तकनीकी और सूचना क्रांति की ऐसी नजर लगी कि मिट्टी की सौंधी महक और प्रकृति के सौंदर्य और श्रृंगार वाले गीत कहीं खो गए। होली का त्योहार प्रेम की वह रसधारा है, जिसके रास्ते रास रंग के जरिये पूरा समाज सरोबार हो जाता था। कानों में ढोल, ताशा, मजीरा और डफली की वह गूंज धीरे-धीरे दूर होती जा रही है।
प्रयागराज के झूंसी निवासी फगुआ गवैया बुजुर्ग राम निहाेर यादव ने बताया कि होली का फगुआ गीत सामाजिक नसीहत एवं प्राकृतिक वातावरण को समेटे मर्मस्पर्शी और झंकार पैदा करने वाले होते थे। गांव के युवा और बुजुर्ग एक स्थान पर बैठकर शाम को नसीहत एवं पुरातन गीतों काे सुनते और सुनाते थे। महिलाएं, पुरूष एवं बच्चे जुटकर गीत का लुत्फ उठाते थे। लेकिन आज आधुनिक जीवन शैली और द्विअर्थी गीतों के शोर में सुमधुर स्वर वाले फगुआ गीत की परंपरा खत्म होती जा रही है। फागुन की मिठास लिए समय के साथ फगुआ गीत गाने वालों की कमी हो गयी है। पुराने गीतों की धर्मिकता भाव लिए पारंपरिक गीतों का स्थान अब आधुनिकता का पुट लिए भौंड़े गीतों ने पारंपरिक गीतों का स्थान ले लिया है।
दिनेश प्रदीप
जारी वार्ता
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