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कुम्भ में नागा सन्यासी बनने के लिये गृहस्थों को दी गयी अवधूत दीक्षा

कुम्भ में नागा सन्यासी बनने के लिये गृहस्थों को दी गयी अवधूत दीक्षा

कुम्भ नगर, 27 जनवरी (वार्ता) दुनिया के सबसे बड़े आध्यात्मिक समागम कुम्भ में अखाड़ों के आन-बान और शान कहे जाने वाले नागा संन्यासियों की पहली सीढ़ी में 1100 गृहस्थों को अवधूत की दीक्षा दी गयी।

गंगा किनारे स्थित सेक्टर 16 में जूना अखाड़े में युवा, बुजुर्ग गृहस्थों को नागा सन्यासी बनने की पहली सीढ़ी की दीक्षा दी गयी। गृहस्थों को सबसे पहले मुण्डन कराया गया। उसके बाद उन्हें गंगा में स्नान कराया गया। सभी गृहस्थ एक कोपिन (लंगोटी) धारण कर गंगा किनारे कतार में बैठे हुए थे। स्नान करने के बाद दो पंडितो द्वारा किये गये मंत्रोच्चार के बीच उन्हे जनेऊ पहनाया गया।

जूना अखाड़ा के दिल्ली संघ महामण्डल अध्यक्ष अगस्त गिरी ने रविवार को यहां बताया कि सबसे बड़ा जूना अखाड़ा है। इसमें सबसे अधिक नागा बनने की दीक्षा दी जाती है। कुम्भ मेले के दौरान दो बार दीक्षा दी जायेगी। एक बार रविवार कोे दीक्षा दी जा रही है उसके बाद दोबारा कुछ दिनों बाद दी जायेगी। उन्होंने बताया कि पहली बार में करीब 1100 गृहस्थ अवधूतों को दीक्षा दी जा रही है।

उन्होंने बताया कि नागा साधुओं का संबंध शैव परंपरा की स्थापना से है। हिन्दू संत धारा में नागा साधुओं का राष्ट्र और धर्म की रक्षा हेतु अहम योगदान रहा है। नागा साधुओं का इतिहास बहुत पुराना है लेकिन आज भी ये लोग एक सामान्य व्यक्ति के लिए जिज्ञासा का केंद्र हैं। कालांतर में ये साधु योद्धा होते थे। हालांकि आज युद्ध नहीं होते है। ऐसे में इन साधुओं की दिनचर्या में भी फर्क पड़ा है। समय के साथ सब कुछ बदलता रहता है, लेकिन एक बात नहीं बदलती वह है नागा साधु बनने के लिए कड़ी प्रक्रिया से गुजरना, जो किसी सैनिक की ट्रेनिंग की तरह होती है। कुंभ और अर्द्ध कुम्भ के दौरान नागा साधु बनाए जाने की प्रक्रिया शुरू हो जाती है। हर किसी को नागा बनना संभव नहीं है। नागा साधु बनने के लिए दृढ़ इच्छाशक्ति और संन्यासी जीवन जीने की प्रबल इच्छा होनी चाहिए। सनातन परंपरा की रक्षा करने और इस परंपरा को आगे बढ़ाने के लिए अलग-अलग संन्यासी अखाड़ों में हर नागा साधु बनने की प्रक्रिया अपनाई जाती है।

महंत अगस्त गिरी ने बताया कि कुंभ, अर्द्धकुंभ, और सिंहस्थ कुम्भ के दौरान नागा साधु बनाए जाने की प्रक्रिया शुरू होती है। संत समाज के 13 अखाड़ों में से जूना, महानिर्वाणी, निरंजनी, अटल, आनंद और आवाहन अखाड़े ही नागा बनाते हैं। इन सभी में जूना अखाड़ा ऐसा स्थान है जहां सबसे ज्यादा नागा साधु बनाए जाते हैं। उसके बाद अन्य अखाड़ो का नम्बर आता है। नागा साधु बनने के लिए सर्वप्रथम ब्रह्मचर्य की दीक्षा दी जाती है। दीक्षा के बाद अखाड़े में शामिल होकर व्यक्ति तीन साल अपने गुरुओं की सेवा करता है।

जूना अखाड़ा के भवूकी हनुमान धाम राणा खेड़ा के महंत केशव भारती ने बताया कि नागा साधु की प्रक्रिया प्रयागराज, हरिद्वार, नासिक और उज्जैन के कुम्भ और और कुम्भ के दौरान ही होती है। प्रयाग के कुम्भ में दीक्षा लेने वाले को नागा, हरिद्वार में दीक्षा लेने वाले को बर्फानी, हरिद्वार में दीक्षा लेने वाले को खूनी नागा ओर नासिक में दीक्षा लेने वाले को खिचड़िया नागा के नाम से जाना जाता है। इन्हें अलग अलग नाम से इसलिए जाना जाता है ताकि उनकी पहचान हो सके किसने कहां से दीक्षा ली है। नागा साधु बनने की प्रक्रिया कठिन तथा लम्बी होती है। इस प्रक्रिया में कुम्भ स्नान का बहुत महत्व है। नागा साधुओं के पंथ में शामिल होने की प्रक्रिया में लगभग छह साल लगते हैं। इस दौरान नए सदस्य एक लंगोटी के अलावा कुछ नहीं पहनते हैं। कुम्भ मेले में अंतिम प्रण लेने के बाद वे लंगोट भी त्याग देते हैं और जीवन भर यू ही रहते हैं। कोई भी अखाड़ा अच्छी तरह जांच-पड़ताल कर योगय व्यक्ति को ही नागा बनने की दीक्षा देता है।

महंत केशव भारती ने कहा कि वहां उसे धर्म, दर्शन और कर्मकांड आदि को समझना होता है। इस परीक्षा को पास करने के बाद महापुरुष बनाने की दीक्षा प्रारंभ होती है। जब ब्रह्मचारी से उसे महापुरूष और फिर अवधूत बनाया जाता है। इस दौरान उसका मुंडन कराने के साथ उसे 108 बार कुम्भ की नदी (प्रयाग और हरिद्वार के गंगा, नासिक में गोदावरी और उज्जैन में क्षिप्रा) में डुबकी लगवाई जाती है।

इसके बाद वह अखाड़े के पांच संन्यासियों को अपना गुरु बनाता है। डुबकियां लगवाने के बाद अखाड़े के ध्वज के नीचे दंडी त्याग करवाया जाता है। इस संपूर्ण प्रक्रिया को 'बिजवान' कहा जाता है। नागा बनने वाले साधुओं को भस्म, भगवा वस्त्र और रुद्राक्ष की माला दी जाती है। अंतिम परीक्षा दिगम्बर और फिर श्रीदिगम्बर की होती है। दिगम्बर नागा एक लंगोटी धारण कर सकता है, लेकिन श्रीदिगम्बर को बिना कपड़े के रहना होता है। नागाओं की इन्द्री वरिष्ठ गुरूओं द्वारा तीन झटके के साथ तोड़ दी जाती है जिससे उनके अन्दर काम-वासना का संचार न/न हो।

जूना अखाड़ा के थानपति धर्मेन्द्र पुरी ने बताया कि सन्यांसियों को सभी प्रक्रिया पूरी हरेने के बाद अपना पिण्डदान कराया जाता है। उससे वह एक मृत शरीर के रूप में रहते हैं। उनका परिवार, रिश्तेदार और नातेदार और सगे संबंधियों से कोई लेना देना नहीं रहता।

उन्होंने बताया कि नागा साधु केवल महाकुम्भ, कुम्भ और अर्द्ध कुम्भ में दिखलाई देते हैं। दरअसल यह कुंभ के अलावा कभी भी सार्वजनिक जीव में दिखाई नहीं देते। कुंभ के समाप्त होने के बाद अधिकतर साधु अपने शरीर पर भभूत लपेट कर हिमालय की चोटियों के बीच चले जाते हैं। वहां यह अपने गुरु स्थान पर अगले कुंभ तक कठोर तप करते हैं।

कपड़ों के नाम पर पूरे शरीर पर धूनी की राख लपेटे ये सन्यांसी कुम्भ मेले में केवल शाही स्नान के समय ही खुलकर श्रद्धालुओं के सामने आते हैं। जूना अखाड़ा के थानपति धर्मेन्द्र पुरी ने बताया नागा साधुओं को सामान्य दुनिया से हटकर बनना पड़ता है इसलिए जब भी कोई व्यक्ति नागा बनने के लिए अखाड़े में जाता है तो उसे विशेष प्रकार की परीक्षाओं से गुजरना पड़ता है। जिस अखाड़े में वह जाता है, उस अखाड़े के प्रबंधक पहले उसकी जांच पड़ताल करते हैं कि व्यक्ति नागा क्यों बनना चाहता है। व्यक्ति की पूरी पृष्ठभूमि देखने और उसके मंतव्यों को जांचने के बाद ही उसे अखाड़े में शामिल किया जाता है।

गुरु के अपने शिष्य की योग्यता पर भरोसा होने के बाद उसे अगली प्रक्रिया में शामिल किया जाता है। यह अगली प्रक्रिया कुंभ के दौरान शुरू होती है जब व्यक्ति को संन्यासी से महापुरुष बनाया जाता है। इनकी तैयारी किसी सेना में शामिल होने जा रहे व्यक्ति से कम नहीं होती।

अखाड़ों के आचार्य अवधूत बनाने के लिए सबसे पहले महापुरुष बन चुके साधु का जनेऊ संस्कार करते हैं और उसके बाद उसे संन्यासी जीवन की शपथ दिलवाई जाती है। इस दौरान नागा बनने के लिए तैयार व्यक्ति से उसके परिवार और स्वयं उसका पिंडदान करवाया जाता है। इसके बाद बारी आती है दंडी संस्कार की और फिर होता है पूरी रात ओं नम: शिवाय का जाप किया जाता है।

उन्होंने बताया कि रात भर चले जाप के बाद, भोर होते ही व्यक्ति को अखाड़े ले जाकर उससे विजया हवन करवाया जाता है और फिर गंगा में 108 डुबकियों का स्नान होता है। गंगा में डुबकियां लगवाने के बाद उससे अखाड़े के ध्वज के नीचे दंडी त्याग करवाया जाता है।

नागा साधु बनने के बाद वे अपने शरीर पर भभूत की चादर चढ़ा लेते हैं। यह भस्म या भभूत बहुत लंबी प्रक्रिया के बाद तैयार की जाती है। किसी मुर्दे की राख को शुद्ध करके उसे शरीर पर मला जाता है या फिर हवन या धुनी की राख से शरीर ढका जाता है।

एक अन्य नागा ने अपनी पहचान छुपाते हुए बताया कि अगर मुर्दे की राख उपलब्ध नहीं है तो हवन कुंड में पीपल, पाखड़, सरसाला, केला और गाय के गोबर को जलाकर उस राख को एक कपड़े से छानकर दूध की सहायता से लड्डू बनाए जाते हैं। इन लड्डुओं को सात बार अग्नि में तपाकर उसे फिर कच्चे दूध से बुझा दिया जाता है। जिसे समय-समय पर नागा अपने शरीर पर लगाते हैं। यही भस्म उनके वस्त्र होते हैं।

 

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