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श्रद्धालुअों के दर्शन के लिये दस जनवरी को खोल दिया जायेगा अक्षयवट का प्रवेशद्वार

श्रद्धालुअों के दर्शन के लिये दस जनवरी को खोल दिया जायेगा अक्षयवट का प्रवेशद्वार

प्रयागराज 02 जनवरी (वार्ता)तीर्थराज प्रयागराज में अक्षयवट का प्रवेश द्वार श्रद्धालुओं के दर्शन और पूजा के लिये दस जनवरी से खोल दिया जायेगा।


     कुंभ में अक्षयवट दर्शन के बिना श्रद्धालु प्रयागराज में स्नान और पूजा पाठ अधूरा माना जाता है। कुंम्भ में इस बार सभी श्रद्धालु अक्षयवट का दर्शन व पूजन कर सकेगें। कई दशको से यह अक्षयवट किले में सेना की सुरक्षा में था जिसे कुंम्भ मेले में आमजनता के लिए दस जनवरी को खोल दिया जायेगा।

      आधिकारिक सूत्रो ने बुधवार को यहां बताया कि अक्षयवट का मुख्य प्रवेशद्वार का निर्माणकार्य तेजी से चल रहा है। दस जनवरी को इसे खोल दिया जायेगा। आमजनता के लिये अक्षयवट के दर्शन के लिये इस बार 18 फिट ऊंचा द्वार और रास्ता बनाया जा रहा है।

    पौराणिक मान्यताओं के अनुसार कल्पांत या प्रलय में जब समस्त पृथ्वी जल में डूब गयी थी तो उस समय भी वट का एक वृक्ष बच गया था। जिसे आज अक्षयवट नाम से जाना जाता है। पौराणिक मान्यताओं के अनुसार अक्षयवट का वृक्ष सृष्टि का परिचायक है। पद्म पुराण में अक्षयवट को तीर्थराज प्रयाग का छत्र कहा गया है। अक्षयवट की पत्तिया व शाखायें दूर दूर तक फैली है। अक्षयवट को ब्रहमा, विष्णु तथा शिव का रूप कहा गया है।

  अक्षयवट मंदिर के महंत मुकेश नाथ गोस्वामी जी ने यहां बताया कि मान्यता है कि पूरे सृष्टि का निर्माण प्रयाग अक्षयवट से हुआ। अक्षयवट के पत्ते पर जब सृष्टि का निर्माण हुआ चारों तरफ जल ही जल का महाप्रलय था। विष्णु भगवान अक्षय वट के पत्ते पर बाल रूप में अपने दाहिने पांव के अंगूठा पोछते हुए दिखाई दिए। उन्होंने बताया कि यह तब की बात है जब ब्रह्मा जी पूरे ब्रह्मांड की और सृष्टि की रचना कर रहे थे।

    उन्होंने बताया कि मार्कंडेय पुराण और शिव पुराण में इसके बारे में लिखा हुआ है। त्रेतायुग में भगवान राम ने जब अवतार लिया था तो उन्हें वनवास हुआ। उन्होने तीन रात अक्षयबट के मूल में बैठकर पूजा पाठ की। यहां से चित्रकूट गए। वनवास पूरा होने के बाद दोबारा यहां आये। अपने पिता राजा दशरथ का पहला पिंडदान अक्षय वट वृक्ष के नीचे किया। इससे पहले लोग पिंड पिंड दान नहीं करते थे।

    महंत गोस्वामी ने बताया कि द्वापर युग में कृष्ण और पांच पांडव अज्ञातवास में जब यहां आए उस समय यहां जंगल हुआ करता था। त्रेतायुग में गंगा जी अक्षय वट के बगल से कल-कल करती थी। उसी गंगा जी के घाट पर लोग पिंडदान करते थे। द्वापर युग में भी यहां जंगल हुआ करता था। पांच पांडव अज्ञातवास में इसी जंगल में छिप कर रहे। 

महंत ने बताया कि अक्षय वट वृक्ष को 644 ई0 में राजा हर्षवर्धन के समय आये चीनी यात्री हेनसांग ने प्रमाणित किया था। उन्होंने अपने यात्रा वर्णन में लिखा है कि मंदिर एक ऊंचे टीले पर है। यहां पर देवांगन और कामकूप कुआ है। यही पर एक अक्षय वट का पेड़ है और साथ में गंगा नदी है। उस समय यह कहा जाता था कि अक्षयवट से देवआंगन व गंगा नदी में कूदकर लोग जान देते थे।

     उन्होने बताया कि उस समय माना जाता था कि ऐसा करने वाला सीधा स्वर्ग जाता है। यहां जो कूदेंगे उन्हें यहां से मुक्ति मिल जाएगा। कुछ लोग गंगा नदी में कूदते थे। कुछ लोग देवांगन में तो कुछ कामकूप कुआं में । इस प्रथा के बारे में चीनी यात्री हेनसांग ने बड़ी कटु आलोचना की। उन्होंने कहा कि हिंदू लोग अंधविश्वास में ऐसा कर रहे हैं।  बाद में जब अकबर बादशाह ने प्रयाग में किले का निर्माण करवाया। उनको भी ये प्रथा खराब लगी।

     महंत ने कहा कि एक राजा के सामने उनकी संतानें जान दे तो अच्छा नही है। श्रद्धालु तथा जनता को बचाने के लिए कुएं को बंद कर दिया। जो सरकार के गजट में है।  गैजेटियर आफ इंडिया में इसका कारण दिया हुआ है।

     मंदिर के मंहत ने बताया कि हमारी 14 पीढ़ी यहां गुजर चुकी है।  उन्होंने कहा कि चार युग से यह अक्षयवट वृक्ष की पूजा हो रही है।  कुंभ मेले के समय लाखों श्रद्धालु देश-विदेश से इसके दर्शन करने यहां आने की उम्मीद है। इसके लिये कड़ी सुरक्षा व्यवस्था की गयी है।

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