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सफेद बाघों का सौ साल का सफर

सफेद बाघों का सौ साल का सफर

मुकुंदपुर 10 अप्रैल (वार्ता) मध्य प्रदेश के विन्ध्य क्षेत्र में आज से लगभग सौ साल पहले दिसंबर 1915 में पहला सफेद बाघ पाया गया था। उस समय से अब तक इस क्षेत्र ने अपनी यह अनमोल निधि देश ही नहीं दुनिया के तमाम देशों को सौगात में दी, लेकिन पिछले 40 साल तक यह स्वयं इससे वंचित रहा। पहले सफेद बाघ की खोज के सौ साल बाद सतना जिले के मुकुंदपुर में महाराजा मार्तंड सिंह जुदेव व्हाइट टाइगर सफारी के लोकार्पण के साथ बाघों की यह प्रजाति एक बार फिर अपने मूल उद्गम स्थली पर लौट आई है। वैज्ञानिकों की मानें तो अपने रंग के अलावा हर मायने में सफेद बाघ भी अन्य भारतीय बाघों की तरह ही है जिनका रंग जीन म्यूटेशन के कारण बदल गया है। उनका बर्ताव और उनकी आदत एक सी है और यहाँ तक कि उनका जीवन काल भी आम बाघों की तरह 16 से 20 साल के बीच है। इनकी संतानों के भी सफेद और भूरे दोनों रंगों के होने की संभावना रहती है। सफेद बाघों के बारे में पहला दस्तावेजी उल्लेख जर्नल ऑफ बॉम्बे नेचुरल हिस्ट्री में मिलता है। इसके अनुसार दिसंबर 1915 में तत्कालीन रीवा राज्य के युवराज गुलाब सिंह ने शहडोल जिले के सोहगपुर से एक सफेद बाघ को पकड़ा था। वह 1920 तक जीवित रहा। हालाँकि, 1560 से 1578 के बीच लिखी गई पुस्तक अकबरनामा में एक चित्र में अकबर को बाघों का शिकार करते दिखाया गया है जिसमें दो सफेद बाघ भी हैं, लेकिन यह निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता कि यह चित्रकारी की कल्पना है या वास्तव में उस समय भी सफेद बाघ पाये जाते थे। अजीत विनोद जारी (वार्ता)

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