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राजनीतिक दलों को जिताने में महती भूमिका निभाते हैं चुनावी नारे

प्रयागराज, 25 अप्रैल (वार्ता) देश की चुनावी राजनीति में नारों ने हमेशा ही महत्वपूर्ण भूमिका निभायी है। एक अच्छा नारा धर्म, क्षेत्र, जाति और भाषा के आधार पर बंटे हुए लोगों को साथ ला सकता है लेकिन ख़राब नारा राजनीतिक महत्वाकांक्षा को नुकसान पहुंचा सकता है।
राजनीतिक दलों के नारे अक्सर देश का मिज़ाज भांपने की दल की क्षमता को रेखांकित करते हैं। नारे ही पार्टियों के चुनाव अभियान में दम और कार्यकर्ताओं में जोश भरने का काम करते हैं। हर पार्टी एक ऐसा नारा अपने लिए चाहती है जिससे वह वोटरों का दिल जीत सके। एक समय ऐसा था चुनाव आते ही बस्ती के हर मोहल्ले में चुनावी नारे गूंजने लगते थे। ये नारे पार्टी की रीति, नीति और लक्ष्य और मुद्दों को थोड़े से शब्दों में समेटने वाले होते थे।
जेब पर लगा पार्टी का 'बिल्ला', जुबां पर नारों की मिठास और लड़कों की टोलियां संबंधित पार्टी के पक्ष में चुनावी माहौल तैयार करने मे एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाती थीं। राजनीतिक दलों ने रचनात्मक नारों के आधार पर चुनाव जीते हैं जबकि नारों के लोगों को प्रभावित न कर पाने की सूरत में कई दल हार गए हैं। कुछ नारे ऐसे निकल आते हैं, जो कई साल तक लोगों की जुबान पर चढ़े रह जाते हैं।
तेलियरगंज निवासी शिक्षक मनीष मिश्र ने बताया कि नारे चुनावी अभियान के अभिन्न हिस्सा के साथ पार्टियों के लिए प्रमुख मुद्दा होते हैं। वर्ष 1971 में कांग्रेस के “गरीबी हटाओ, देश बचाओ” से लेकर वर्ष 2014 में भारतीय जनता पार्टी के ‘अच्छे दिन आने वाले हैं और सब का साथ सब का विकास”, अलग अलग दलों ने मतदाताओं को आकर्षित करने के लिए अभिनव और आकर्षक नारों का इस्तेमाल किया है।
दिनेश प्रदीप
चौरसिया
जारी वार्ता
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