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लोकरूचि-सावन कजरी दो प्रयागराज

करीब ढ़ेड़ दशक पहले तक पूर्वी उत्तर प्रदेश के जिलों में कजरी की खासी धूम हुआ करती थी, लेकिन अब इसको जानने वाले लोग गिने चुने रह गये हैं। सावन के शुरूआत से ही कजरी के बोल और झूले गांव-गांव की पहचान बन जाते थे।
“झूला पड़ै कदंब की डाली, झूलैं कृष्ण मुरारी ना” के बोल से शुरू होने वाली कजरी दोपहर से शाम तक झूले पर चलती रहती थी। कजरी के गायन में पुरुष भी पीछे नहीं थे।
दिन ढ़लने के बाद गांव में कजरी गायन की मंडलियां जुटती थीं। देररात तक महिलाओं का समूह में कजरी का दौर चलता था लेकिन अब प्रकृति के आनंद से दूर घरों में टीवी सीरियल और मोबाइल के इर्द-गिर्द अपने को कैद
कर लिया है।
कजरी के वर्ण्य-विषय ने जहाँ एक ओर भोजपुरी के सन्त कवि लक्ष्मीसखी, रसिक किशोरी आदि को प्रभावित किया, वहीं अमीर ख़ुसरो, बहादुरशाह ज़फर, सुप्रसिद्ध शायर सैयद अली मुहम्मद 'शाद', हिन्दी के कवि अम्बिकादत्त
व्यास, श्रीधर पाठक, द्विज बलदेव, बदरीनारायण उपाध्याय 'प्रेमधन' आदि भी कजरी के आकर्षण मुक्त नहीं रह सके।
आधुनिक हिंदी साहित्य के पितामह कहे जाने वाले भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने भी अनेक कजरियों की रचना कर लोक-विधा से हिन्दी साहित्य को सुसज्जित किया। उन्होने कजरी गीतों में प्रेम, श्रृंगार और विरह विषयक को बखूबी से चित्रित किया है।
ऋतु प्रधान लोक-गायन की शैली कजरी का फ़िल्मों में भी प्रयोग किया गया है। हिन्दी फ़िल्मों में कजरी का मौलिक रूप कम मिलता है, लेकिन 1963 में प्रदर्शित भोजपुरी फ़िल्म 'बिदेसिया' में इस शैली का अत्यन्त मौलिक रूप प्रयोग किया गया। इस कजरी गीत की रचना अपने समय के जाने-माने लोक गीतकार राममूर्ति चतुर्वेदी ने की थी।
दिनेश भंडारी
जारी वार्ता
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