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कव्वाली को संगीतबद्ध करने में महारत हासिल थी रोशन को

कव्वाली  को संगीतबद्ध करने में महारत हासिल थी रोशन को

मुंबई, 13 जुलाई (वार्ता) हिंदी फिल्मों में जब कभी कव्वाली का जिक्र होता है संगीतकार रोशन का नाम सबसे पहले लिया जाता है। रोशन ने फिल्मों में हर तरह के गीतों को संगीतबद्ध किया है लेकिन कव्वालियों को संगीतबद्ध करने में उन्हें महारत हासिल थी। वर्ष 1960 में प्रदर्शित सुपरहिट फिल्म “बरसात की रात” में यूं तो सभी गीत लोकप्रिय हुये लेकिन रोशन के संगीत निर्देशन में मन्ना डे और आशा भोंसले की आवाज में साहिर लुधियानवी रचित कव्वाली “ना तो कारंवा की तलाश” और मोहम्मद रफी की आवाज में “ये इश्क इश्क है” आज भी श्रोताओं के दिलों में अपनी अमिट छाप छोड़े हुये है । वर्ष 1963 में प्रदर्शित फिल्म “दिल ही तो है” में आशा भोंसले और मन्ना डे की युगल आवाज में रोशन की संगीतबद्ध कव्व्वाली “निगाहें मिलाने को जी चाहता है” आज जब कभी भी फिजाओं में गूंजता है तब उसे सुनकर श्रोता अभिभूत हो जाते हैं। 14 जुलाई 1917 को तत्कालीन पश्चिमी पंजाब के गुजरावालां शहर अब पाकिस्तान में एक ठेकेदार के घर में जन्मे रोशन का रुझान बचपन से ही अपने पिता के पेशे की ओर न होकर संगीत की ओर था। संगीत की ओर रुझान के कारण रोशन अक्सर फिल्म देखने जाया करते थे। इसी दौरान उन्होंने एक फिल्म “पुराण भगत” देखी। फिल्म “पुराण भगत” में गायक सहगल की आवाज में एक भजन रोशन को काफी पसंद आया। इस भजन से वह इतने ज्यादा प्रभावित हुये कि उन्होंने यह फिल्म कई बार देख डाली। ग्यारह वर्ष की उम्र आते-आते उनका रुझान संगीत की ओर हो गया और वह उस्ताद मनोहर बर्वे से संगीत की शिक्षा लेने लगे।


मनोहर बर्वे स्टेज के कार्यक्रम को भी संचालित किया करते थे उनके साथ राेशन ने देश भर में हो रहे स्टेज कार्यक्रमों में हिस्सा लेना शुरू कर दिया। मंच पर जाकर मनोहर बर्वे जब कहते कि “अब मैं आपके सामने देश का सबसे बड़ा गवइयां पेश करने जा रहा हूँ तो रोशन मायूस हो जाते क्योंकि ‘गवइया’ शब्द उन्हें पसंद नहीं था। उन दिनों तक रोशन यह तय नही कर पा रहे थे कि गायक बना जाये या फिर संगीतकार। कुछ समय के बाद रोशन घर छोड़कर लखनऊ चले गये और ‘मॉरिस काॅलेज आॅफ म्यूजिक’ में प्रधानाध्यापक रतन जानकर से संगीत सीखने लगे। लगभग पांच वर्ष तक संगीत की शिक्षा लेने के बाद वह मैहर चले आये और उस्ताद अल्लाउदीन खान से संगीत की शिक्षा लेने लगे। एक दिन अल्लाउदीन खान ने उनसे पूछा तुम दिनमें कितने घंटे रियाज करते हो। रोशन ने गर्व के साथ कहा दिन में दो घंटे और शाम को दो घंटे, यह सुनकर अल्लाउदीन खान बोले “यदि तुम पूरे दिन में आठ घंटे रियाज नहीं कर सकते हो तो अपना बोरिया बिस्तर उठा कर यहां से चले जाओ” रोशन को यह बात चुभ गयी और उन्होंने लगन के साथ रियाज करना शुरू कर दिया। शीघ्र ही उनकी मेहनत रंग लाई और उन्होंने सुर के उतार चढ़ाव की बारीकियों को सीख लिया। इन सबके बीच रोशन ने बुंदु खान से सांरगी की शिक्षा भी ली। उन्होंने वर्ष 1940 में आकाशवाणी केंद्र दिल्ली में बतौर संगीतकार अपने करियर की शुरूआत की। बाद में उन्होंने आकाशवाणी से प्रसारित कई कार्यक्रमों में बतौर हाउस कम्पोजर भी काम किया।


वर्ष 1949 में फिल्मी संगीतकार बनने का सपना लेकर रोशन दिल्ली से मुंबई आ गये। मायानगरी मुंबई में एक वर्ष तक संघर्ष करने के बाद उनकी मुलाकात जाने माने निर्माता निर्देशक केदार शर्मा से हुयी। उनके संगीत बनाने के अंदाज से प्रभावित केदार शर्मा ने उन्हें अपनी फिल्म ‘नेकी और बदी’ में बतौर संगीतकार काम करने का मौका दिया। अपनी इस पहली फिल्म के जरिये भले ही रोशन सफल नहीं हो पाये लेकिन गीतकार के रूप में उन्होंने अपने सिने करियर के सफर की शुरूआत अवश्य कर दी। वर्ष 1950 में एक बार फिर उन्हें केदार शर्मा की फिल्म “बावरे नैन” में काम करने का मौका मिला। फिल्म “बावरे नैन” में मुकेश के गाये गीत “तेरी दुनिया में दिल लगता नहीं” की कामयाबी के बाद वह फिल्मी दुनिया में संगीतकार के तौर पर अपनी पहचान बनाने में सफल रहे। उनके संगीतबद्ध गीतों को सबसे ज्यादा मुकेश ने अपनी आवाज दी थी। गीतकार साहिर लुधियानवी के साथ रोशन की जोड़ी खूब जमी। इन दोनों की जोड़ी के गीत-संगीत ने श्रोताओं को भावविभोर कर दिया। इन गीतों में ना तो कारंवा की तलाश है, जिंदगी भर नहीं भूलेगी वो बरसात की रात, लागा चुनरी में दाग, जो बात तुझमें है, जो वादा किया वो निभाना पडेगा, दुनिया करे सवाल तो हम क्या जवाब दें, जैसे मधुर नगमें शामिल है। रोशन को वर्ष 1963 में प्रदर्शित फिल्म ताजमहल के लिये सर्वश्रेष्ठ संगीतकार का फिल्म फेयर पुरस्कार दिया गया। हिन्दी सिने जगत को अपने बेमिसाल संगीत से सराबोर करने वाले यह महान संगीतकार रोशन 16 नवंबर 1967 को सदा के लिये इस दुनिया को अलविदा कह गये। प्रेम, उप्रेती वार्ता

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