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राज्य


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भस्मासुर के प्रतीक के रुप में गवरी का नायक राई, बुढिया अपने मुंह पर उसका मुखौटा धारण कर समस्त गवरी का संचालन करते हैं। गवरी नृत्य के विभिन पात्र गोलाकार के मध्य देवी के त्रिशुल की स्थापना करके नृत्य प्रदर्शन करते हैं।
गवरी के प्रथम दिन गांव के सभी देवालयों के समक्ष, दूसरे दिन गांव में उत्तर दिशा में एवं तीसरे दिन अन्य आमंत्रित करने वालो के स्थानों पर गवरी नर्तक दल अपना प्रदर्शन करने निकल पडता हैं। गवरी दल में सिर्फ भील पुरूष ही भाग लेते हैं तथा स्त्री पात्रों का अभिनय भी पुरूषों द्वारा ही किया जाता हैं। गवरी नाट्य के प्रमुख वाद्ययंत्र मांदल और थाली और ढोल होते हैं।
गवरी के दल में 50 से 150 तक पात्र भाग लेते हैं। यह दल प्रत्येक दिन दोपहर बारह बजे से शाम छह बजे तक एवं रात्रि में अलग से नृत्य प्रदर्शन करता हैं। इस दौरान छोटी छोटी कई लघु नाटिकाओं का मंचन किया जाता हैं । इनकी कथाएं पुराण,, भागवत, इतिहास, लोक परम्परा एवं जन संस्कृति आधारित होती हैं। इनमें गणपति, भंवरिया, गोमा, मीणा, कालूकीर, कान गूजरी, भियांवड, देवी अंबाव, बादशाह की फौज, बणजारा, शिव पार्वती आदि प्रमुख लघु नाटिकाएं होती हैं।
परम्परागत कथाओं के साथ साथ दर्शकों की हास्य रुचि के अनुरुप भी कई नाट्यों का प्रदर्शन होता हैं। इनमें बणिया, खेतुडी, पाबुजी, बडलिया हिंदवा, खडल्याभुत, कालबेलिया, नट, शंकरिया प्रमुख हैं। इसमें से कुछ ऐसे कथानक हैं जो घडावण की रात को मंचित किए जात हैं। इनमें सोन मुर्गा, जोगियों की जमात, खेतुडी आदि प्रमुख हैं।
घडावण एवं वलावण गवरी के दो अंतिम पर्व होते हैं। घडावण के एक दिन पूर्व गवरी दल अपने मूल गांव वापस लौट आता हैं एवं कुम्हार के घर जाकर मिट्टी का बना शुभ हाथी लाता हैं। उसको गांव के चौराहे पर रखकर सब उसके इर्द गिर्द नाचते रहते हैं। रात्रि में हाथी देवालय में रखा जाता है तथा सम्पूर्ण रात्रि गवरी की शास्त्रीय शैली के नाटको का मंचन होता रहता हैं।
वलावण अर्थात गवरी के विसर्जन के दिन गवरी नृत्य का मंचन होता है तथा शाम चार बजे नृत्य समाप्ति के पश्चात गवरी पात्रों की विवहित बहन बेटियां उनको कपडे वगैरह पहनाती हैं। इसे पैरावनी कहते हैं। विसर्जन के हाथी को सिर पर उठाकर गांव के पास नदी अथवा तालाब की ओर लाया जाता है और उसे विसर्जित कर गवरी उत्सव समाप्त किया जाता है।
रामसिंह अजय
जारी वार्ता
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