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कुम्भ-नागा दीक्षा तीन कुम्भनगर

नागा साधु बनने की प्रक्रिया कठिन तथा लम्बी होती है। इस प्रक्रिया में कुम्भ स्नान का बहुत महत्व है। नागा साधुओं के पंथ में शामिल होने की प्रक्रिया में लगभग छह साल लगते हैं। इस दौरान नए सदस्य एक लंगोटी के अलावा कुछ नहीं पहनते हैं। कुम्भ मेले में अंतिम प्रण लेने के बाद वे लंगोट भी त्याग देते हैं और जीवन भर यू ही रहते हैं। कोई भी अखाड़ा अच्छी तरह जांच-पड़ताल कर योगय व्यक्ति को ही नागा बनने की दीक्षा देता है।
महंत केशव भारती ने कहा कि वहां उसे धर्म, दर्शन और कर्मकांड आदि को समझना होता है। इस परीक्षा को पास करने के बाद महापुरुष बनाने की दीक्षा प्रारंभ होती है। जब ब्रह्मचारी से उसे महापुरूष और फिर अवधूत बनाया जाता है। इस दौरान उसका मुंडन कराने के साथ उसे 108 बार कुम्भ की नदी (प्रयाग और हरिद्वार के गंगा, नासिक में गोदावरी और उज्जैन में क्षिप्रा) में डुबकी लगवाई जाती है।
इसके बाद वह अखाड़े के पांच संन्यासियों को अपना गुरु बनाता है। डुबकियां लगवाने के बाद अखाड़े के ध्वज के नीचे दंडी त्याग करवाया जाता है। इस संपूर्ण प्रक्रिया को 'बिजवान' कहा जाता है। नागा बनने वाले साधुओं को भस्म, भगवा वस्त्र और रुद्राक्ष की माला दी जाती है। अंतिम परीक्षा दिगम्बर और फिर श्रीदिगम्बर की होती है। दिगम्बर नागा एक लंगोटी धारण कर सकता है, लेकिन श्रीदिगम्बर को बिना कपड़े के रहना होता है। नागाओं की इन्द्री वरिष्ठ गुरूओं द्वारा तीन झटके के साथ तोड़ दी जाती है जिससे उनके अन्दर काम-वासना का संचार न/न हो।
जूना अखाड़ा के थानपति धर्मेन्द्र पुरी ने बताया कि सन्यांसियों को सभी प्रक्रिया पूरी हरेने के बाद अपना पिण्डदान कराया जाता है। उससे वह एक मृत शरीर के रूप में रहते हैं। उनका परिवार, रिश्तेदार और नातेदार और सगे संबंधियों से कोई लेना देना नहीं रहता।
उन्होंने बताया कि नागा साधु केवल महाकुम्भ, कुम्भ और अर्द्ध कुम्भ में दिखलाई देते हैं। दरअसल यह कुंभ के अलावा कभी भी सार्वजनिक जीव में दिखाई नहीं देते। कुंभ के समाप्त होने के बाद अधिकतर साधु अपने शरीर पर भभूत लपेट कर हिमालय की चोटियों के बीच चले जाते हैं। वहां यह अपने गुरु स्थान पर अगले कुंभ तक कठोर तप करते हैं।
कपड़ों के नाम पर पूरे शरीर पर धूनी की राख लपेटे ये सन्यांसी कुम्भ मेले में केवल शाही स्नान के समय ही खुलकर श्रद्धालुओं के सामने आते हैं।
दिनेश भंडारी
जारी वार्ता
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