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लोकरूचि-श्राद्ध महिला तीन प्रयागराज

आचार्य ने बताया कि सभी प्रकार के श्राद्ध पितृ पक्ष के दौरान किए जाने चाहिए लेकिन, अमावस्या का श्राद्ध ऐसे भूले बिसरे लोगों के लिए ग्राह्य होता है जो अपने जीवन में भूल या परिस्थितिवश अपने पितरों को श्रद्धासुमन अर्पित नहीं कर पाते। श्राद्ध में कुश और तिल का बहुत महत्त्व होता है। दर्भ या कुश को जल और वनस्पतियों का सार माना जाता है।
उन्होंने बताया कि श्राद्ध वैदिक काल के बाद से शुरू हुआ। वसु, रुद्र और आदित्य श्राद्ध के देवता माने जाते है। हर व्यक्ति के तीन पूर्वज पिता, दादा और परदादा क्रम से वसु, रुद्र और आदित्य के समान माने जाते हैं। श्राद्ध के वक़्त वे ही अन्य सभी पूर्वजों के प्रतिनिधि माने जाते हैं। मान्यता है कि रीति-रिवाजों के अनुसार कराये गये श्राद्ध-कर्म से तृप्त होकर पूर्वज अपने वंशधर को सपरिवार सुख-समृद्धि और स्वास्थ्य का आर्शीवाद देते हैं। श्राद्ध-कर्म में उच्चारित मन्त्रों और आहुतियों को वे अन्य सभी पितरों तक ले जाते हैं।
आचार्य गौतम ने बताया कि उपनिषदों में कहा गया है कि देवता और पितरों के कार्य में कभी आलस्य नहीं करना चाहिए। पितर जिस योनि में होते हैं, श्राद्ध का अन्न उसी योनि के अनुसार भोजन बनकर उन्हें प्राप्त होता है। श्राद्ध जैसे पवित्र कर्म में गौ का दूध, दही और घृत सर्वोत्तम माना गया है। धर्मशास्त्र में पितरों को तृप्त करने के लिए जौ, धान, गेहूँ,
मूँग, सरसों का तेल, कंगनी, कचनार आदि का उपयोग बताया गया है।
इसमें आम, बहेड़ा, बेल, अनार, पुराना आँवला, खीर, नारियल, फालसा, नारंगी, खजूर, अंगूर, नीलकैथ, परवल, चिरौंजी, बेर, जंगली बेर, इंद्र जौ के सेवन आदि का भी विधान है। तिल को देव अन्न कहा गया है। काला तिल ही वह
पदार्थ है जिससे पितर तृप्त होते हैं। इसलिए काले तिलों से ही श्राद्ध कर्म करना चाहिए।
उन्होंने बताया कि श्राद्ध में तिल और कुशा का सर्वाधिक महत्त्व होता है। श्राद्ध में पितरों को अर्पित किए जाने वाले भोज्य पदार्थ को पिंडी रूप में अर्पित करना चाहिए। श्राद्ध का अधिकार पुत्र, भाई, पौत्र, प्रपौत्र समेत महिलाओं को भी होता है। जानकारी के अभाव में अधिकांश लोग श्राद्धकर्म को उचित विधि से नहीं करते जो दोषपूर्ण है क्योंकि शासत्रानुसार ‘‘पितरो वाक्यमिच्छन्ति भवमिच्छन्ति देवता।” अर्थात देवता भाव से प्रसन्न होते हैं और पित्रगण शुद्ध एवं उचित विधि से किए गए कर्म से।
श्राद्ध-कर्म में पके हुए चावल, दूध और तिल को मिश्रित करके पिण्ड बनाते हैं, उसे 'सपिण्डीकरण' कहते हैं। पिण्ड का अर्थ है शरीर। यह एक पारंपरिक विश्वास है, जिसे विज्ञान भी मानता है कि हर पीढ़ी के भीतर मातृकुल तथा पितृकुल दोनों में पहले की पीढ़ियों के समन्वित 'गुणसूत्र' उपस्थित होते हैं। चावल के पिण्ड जो पिता, दादा, परदादा और पितामह के शरीरों का प्रतीक हैं, आपस में मिलकर फिर अलग बाँटते हैं।
दिनेश प्रदीप
जारी वार्ता
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