Saturday, Apr 27 2024 | Time 05:02 Hrs(IST)
image
राज्य » उत्तर प्रदेश


लोकरूचि-प्रयाग महात्म दो अंतिम प्रयागराज

रसिक महराज ने बताया कि प्रयाग की महत्ता का वर्णन नहीं किया जा सकता। इसकी महत्ता के कारण ही इसकी चर्चा वेद, पुराण धर्म ग्रंथों आदि समेत देश ही नहीं विदेशों में भी होती है। प्रयाग को तीर्थराज कहा गया है। इसे सप्त‍पुरियों का पति भी कहा गया है। इसके नजदीक काशी को उसकी सबसे प्रमुख पटरानी माना जाता है। पुराणों में कहा गया है कि अयोध्या, मथुरा, माया(हरिद्वार,) काशी,(वाराणसी), कांची (कांचीपुरम) अवंतिका(उज्जयिनी) और द्वारकापुरी मोक्ष देने वाली हैं। इन्हें मोक्ष देने का अधिकार तीर्थराज प्रयाग ने ही दिया है।
उन्होने पद्‌मपुराण का हवाला देते हुए बताया कि भगवान वेणी माधव को शिव अत्यंत प्रिय हैं। वही शिव अवंतिका में महाकालेश्वर के रूप में विराजमान हैं, वहीं शिव कांची की पुण्य गरिमा के कारण हैं। उनका प्रयाग में निरन्तर निवास करना शैव और वैष्णव धर्म के समन्वय का प्रमाण है।
ब्रह्म पुराण के अनुसार प्रयाग तीर्थ में प्रकृष्ट यज्ञ हुए हैं इसलिए इसे प्रयाग कहा गया है। जैसे चारों वेदों की स्थापना के बाद ब्रह्मा ने यहीं पर सबसे पहला यज्ञ किया। इसलिए इसका नाम प्रयाग पड़ा। यहां प्रयाग का मतलब प्रथम यज्ञ से है। प्र मतलब पहला और याग का अर्थ यज्ञ। ऐसा भी माना जाता है कि कि ब्रम्हदेव ने ब्रह्माण्ड के निर्माण से पूर्व पर्यावरण को शुद्ध करने के लिए यज्ञ यहीं किया इसीलिए इसका नाम प्रयाग पड़ा । प्रयाग का एक अर्थ है यज्ञ के लिए सर्वश्रेष्ठ स्थान। प्रयाग का एक दूसरा अर्थ वह स्थान जहां बहुत से यज्ञ हुए हों। यह भी कहा जाता है कि जब ब्रह्मा ने सष्टि का निर्माण करने की सोची तो सबसे पहले यहीं यज्ञ किया था।
उन्होने बताया कि प्रयाग से सभी तीर्थों की उत्पत्ति हुई है। अन्य तीर्थों से प्रयाग की उत्पत्ति नहीं हुई। यहीं कारण है कि इसे तीर्थराज प्रयाग कहा गया है। पद्ममपुराण के पातालखण्ड के सातवें अध्याय के सातवें श्लोक में लिखा है जिस प्रकार जगत की उत्पत्ति ब्रह्माण से होती है। जगत से ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति नहीं उसी प्रकार प्रयाग से अन्य तीर्थों की उत्पत्ति हुई है।
महाशक्तिपीठाधीश्वर ने बताया कि श्वेत नदियो का संगम प्रयाग सदियों से देवताओं, ऋषियों-मुनियों, साधु-संतों और गृहस्थों की तपस्थली रहा है। प्रयाग ही ऐसा तीर्थ है जो कामद और मोक्षद भी है। यह मुक्ति और भुक्ति दोनो ही देता है। प्रयाग तीर्थ की सेवा देवता, मुनि और दैत्य सभी करते हैं। प्रयाग में माघ मास में विश्व के सतस्त तीर्थ और देव, दनुज, किन्नर, नाग, गन्धर्व पहुंच कर आदर पूर्वक स्नान करते हैं।
उन्होने धर्मग्रंथों के हवाले से बताया कि अन्य स्थलों पर हुए पापकर्मो का नाश पुण्य क्षेत्रों के दर्शन से होता है। पुण्य क्षेत्र में हुए पापों का शमन कुम्भकोण तीर्थ में होता है। कुम्भ कोण में हुए पापों का नाश वाराणसी में होता है। वाराणसी में हुए पापों का नाश प्रयाग में होता है। प्रयाग में हुए पापों का श्मन यमुना में, यमुना में हुए पापों का शमन सरस्वती में, सरस्वती में हुए पापों का नाश गंगा में, गंगा में हुए पापों का शमन त्रिवेणी स्नान से होता है और त्रिवेणी में हुए पापों का नाश प्रयाग में मृत्यु प्राप्त करने से होता है।
रसिक महराज ने बताया कि वेद, पुराण, उपनिषद और अन्य धार्मिक पुस्तकें प्रयागराज की महिमा को महिमा मण्डित किया है। पद्मपुराण के प्रयाग महात्म में रेत के महात्म का विस्तार से वर्णन किया गया है। माघ स्नान से पहले साधु-संन्यासी और कल्पवासी इसी रेत को श्रद्धापूर्वक प्रणाम करते हैं। उसके बाद त्रिवेणी में आस्था की डुबकी लगाते हैं। उनका मानना है कि उनके गुरू के चरण कभी इसी रेत पड़े हों। श्रद्धालु स्नान करने के बाद यहां की एक मुठ्ठी रेत को ससम्मान अपने साथ लेकर जाते हैं।
उन्होने बताया कि दुनिया में यही एक ऐसा स्थान है जहां श्रद्धालु कल्पवास (साधना) करते हैं। एक माह तक हवन, पूजा-पाठ, यज्ञ के साथ निरंतन कुछ न कुछ धर्मिक कार्य होते रहते हैं जिससे यह क्षेत्र आध्यात्मिक ऊर्जा से भरी हुई है। रेणुका में लेटने से कभी दोष नहीं लगता। उन्होने रेणुका की मान्यता की एक विलक्षणता का उदाहरण बताया कि मिट्टी में लेटने से कपडे में दाग पड़ जाता है लेकिन रेणुका में लेटने से कोई दाग नहीं लगता। यह इनकी विशुद्धता की पहचान है।
गोस्वामी तुलसदास जी अपने रामचरित मानस में लिखा है “भरद्वाज मुनि बसहि प्रयागा, तिनहिं रामपद अति अनुरागा। तापस समदम दयानिधाना परमारथ पथ परम सुजाना। माघ मकरगति रवि जब होई, तीरथपतिहि आव सब कोई। देव दनुज किन्नर नर श्रेनी, सादर मज्जहि सकल त्रिवेनी।”
दिनेश प्रदीप
वार्ता
image